गीतावलोकन अध्याय ९


ॐश्रीपरमात्मने नमः
 अथ नवमोऽध्यायः
  श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्यामनसूयवे ।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥९/१॥
            श्रीभगवान कहते हैं कि अभी तो उत्तम योगियों का साध्य अष्टांगयोग योग एवं विचारों की प्रधानता वाला योग कहा है और अब जो मेरे कथन और मुझमें दोष दृष्टि नहीं रखते उन जन साधारण के लिए ऐसा गुप्त रहस्य बताता हूं जिसको जानकर और आचरण में लाकर पापी से भी बढ़कर पापी अशुभ संसार से तर जाता है उसको ज्ञान और विज्ञान के सहित कहता हूं उसको ध्यान से सुनो— ॥१॥

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥९/२॥
              ये समग्र रूप का प्रतिपादन करने वाली विद्या राजमहिषी की तरह गोपनीय, अति पवित्र एवं अति उत्तम, प्रत्यक्ष फल देने वाली ज्ञान स्वरूप उत्तम अर्थात नित्य सुख देने वाली है ॥२॥

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥९/३।॥
            इस ज्ञानमय विद्या में श्रद्धा न रखने वाला परमेश्वर को प्राप्त न करके संसार चक्र में भ्रमण करते हैं ॥३॥

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ॥९/४॥
              संपूर्ण जगत मेरे अव्यक्त स्वरूप से व्याप्त है । संपूर्ण प्राणी मुझमें हैं मैं उनमें नहीं हूं ॥४॥

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभानः ॥९/५॥
             वस्तुतः योग शक्ति से मुझे देखो वे प्राणी मुझमें नहीं हैं बल्कि संपूर्ण प्राणियों की और उनका भरण पोषण मेरा स्वरूप ही है ।
             जैसे घड़ा मिट्टी में है किन्तु मिट्टी घड़े में नहीं है, क्यों मिट्टी ने ही घड़े की उपाधि ग्रहण की है अतः घड़ा नाम से उपाधि है वस्तुतः मिट्टी से भिन्न घड़ा नाम की कोई वस्तु ही नहीं है । इसी प्रकार विचार से देखा जाये तो जो बहुत सारे घड़े, कुल्हण आदि दिख रहे हैं वे मिट्टी में हैं ही नहीं । क्योंकि यदि मिट्टी में घड़े होते तो उनमें से मिट्टी को निकाल देने पर भी होते, किन्तु मिट्टी निकालने पर वे घड़े नहीं होते । अतः मिट्टी में घड़े आदि कुछ नहीं है क्योंकि वह घड़े आदि तो साक्षात मिट्टी का स्वरूप ही हैं न कि मिट्टी से भिन्न घड़ा आदि । जो दिख रहा है वह औपाधिक भ्रम है । इसी प्रकार परमात्मा में सभी प्राणी होते हुए भी नहीं हैं जो दिख रहा है वह परमात्मा ही है अन्य नहीं ।
              इसी प्रकार ‘सदसच्चाहम्’ ९/१९ एवं ‘न सत्तन्नासदुच्यते’ १३/१२ की संगति समझ लेना चाहिए ॥५॥

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥९/६॥
             पूर्व के कथन को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जैसे आकाश में वायु सर्वत्र स्वतंत्र विचरण करती किन्तु वायु आकाश से न तो भिन्न है और न ही आकाश वायु है, किन्तु आकाश से भिन्न वायु की कोई अपनी सत्ता ही नहीं है उसी प्रकार संपूर्ण प्राणी मुझ स्थानीय धारित हैं, मेरे द्वारा धारण किये हुए मुझ में स्थित हैं ॥६॥

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् ।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥९/७॥
           संपूर्ण प्राणी कल्पक्षय होने पर मेरी त्रिगुणात्मिका प्रकृति को प्राप्त होते हैं, पुनः कल्प के आदि में उन्हीं का सृजन करता हूं ॥७॥

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्रामिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥९/८॥
            त्रिगुणात्मिका प्रकृति को अपने आधीन करके प्रकृति (पूर्व कृत कर्मों से निर्मित स्वभाव) के परवश होकर इस संपूर्ण प्राणि समुदाय की बारंबार रचना करता हूं ॥८॥

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मषु ॥९/९॥
                किन्तु धनञ्जय ! उदासीन के समान अनासक्त भाव से उन कर्मों में स्थित होने के कारण वे कर्म मुझे नहीं बांधते ॥९॥

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥९/१०॥
             शंका हो सकती है कि जब परमात्मा नित्य निर्विकार है तो उनके द्वारा उत्पन्न सृष्टि का परिवर्तन कैसे होता है ? इस पर कहते हैं—
              जगत का परिवर्तन होने का कारण बताते हैं कि जगत के परिवर्तन होने का कारण यह है कि मेरी अध्यक्षता में अर्थात मेरे प्रकाश में परिवर्तनशील प्रकृति ही संपूर्ण प्राणियों का प्रसव करती है । अतः प्रकृति की परिवर्तनशीलता के कारण संपूर्ण जगत परिवर्तित हो रहा है ॥१०॥

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
परं भावमजान्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥९/११॥
             संपूर्ण प्राणियों का शासक मेरे परम सत्ता रूप को न जानने के कारण अविवेकी मनुष्य के शरीर वाला अर्थात सामान्य जीव मानते हैं ।
             संपूर्ण प्राणियों में स्थित आत्म रूप चैतन्य प्रकाश, जिसका आश्रय लेकर प्रकृति का सृजन कार्य होता है प्राणियों में स्थित आत्मरूप परम सत्ता के स्वरूप को न जानने के कारण मनुष्य (साधारण जीव) मानते हैं ॥११॥

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।
राक्षसीमासुरीं चैव मोहिनीं प्रकृतिं श्रिताः ॥९/१२॥
            आत्मस्वरूप परमसत्ता को आत्म रूप में न देखने वाले की आशाएं अर्थात् आत्मा से कोई भिन्न परमात्मा है, मैं उसकी प्राप्ति करूंगा ऐसी जो आशाएं हैं वे व्यर्थ हैं, स्व से भिन्न किसी परमात्मा की प्राप्ति की प्रत्येक चेष्टाएं (कर्म) व्यर्थ हैं, आत्मा-परमात्मा का बड़ी ही सूक्ष्मता से विवेचन करने वाला भेद ज्ञान भी व्यर्थ है, क्योंकि उन्होंने मोहित करने वाली राक्षसी-आसुरी स्वभाव का आश्रय लिया हुआ है । 
               इस श्लोक में स्प्षट रूप से संपूर्ण प्राणियों में स्थित आत्मा को परमात्मा रूप में न देखकर भिन्न भाव रखने वाला राक्षस एवं असुर कहा गया है । दुर्भाग्यवश आज पत्थार में भगवान तो सिद्ध हो गया है लेकिन इंसान में भगवान तो क्या इंसान भी भी सिद्ध नहीं हो पाया ॥१२॥

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥९/१३॥
         किन्तु पार्थ ! जो संपूर्ण प्राणियों का आदि, अविनाशी मेरे व्यापक स्वरूप को जानकर मुझ देव से संबंधित मुझे ही प्राप्त कराने वाले साधन जिन्हें दैवी प्रकृति कहा गया है उसका आश्रय लेकर अन्यय मन से अर्थात मुझसे भिन्न अन्य कुछ भी चिन्तन न करते हुए मेरा भजन करते हैं ॥१३॥

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥९/१४॥
            जो अपने दैवी साधन के प्रति दृढ़व्रती हैं वे निरंतर मेरे गुण और स्वरूप का गान करते हैं । नमस्कार करते हैं, आत्मनिष्ठा से निरंतर अभिन्न रूप से उपासना करते हैं ।
             स्तुति में गुण और स्वरूप दोनो का वर्णन किया जाता है । नमस्कार भी उसके सगुण और निर्गुण दोनो ही रूपों में होता है और अभिन्न आत्मरूप उपासना उपासना का चरम है ॥१४॥

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते ।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥९/१५॥
              कोई अन्य ज्ञानयज्ञ अर्थात प्रकृति-पुरुष के विवेचन पूर्वक सहज ही मेरी उपासना करते हैं, कोई वेदान्त प्रतिपाद्य तत्त्वमसि आदि के द्वारा उस बहुत प्रकार भिन्न भिन्न दिखने वाले जड़-चेतन प्राणियों के रूप में संपूर्ण प्राणियों में स्थित आत्मा की एकत्व रूप से अर्थात जीवात्मैक्य रूप से मेरी उपासना करते हैं ॥१५॥

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् ।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥९/१६॥
          मैं क्रतु हूं, मैं यज्ञ हूं, पितरों का भाग स्वधा हूं, औषधि मैं हूं, मंत्र मैं हूं, मैं आज्य अर्थात यज्ञ का होम किया जाने वाला घृत मैं हूं, मैं यज्ञाग्नि हूं एवं आहुति हूं ।
             यहां क्रतु का अर्थ वैदिक यज्ञ हम लें तो यज्ञ का अर्थ स्मृतियों में कहे गये तांत्रिक यज्ञ करके श्रौत और स्मार्त यज्ञ समझ लेना चाहिए । यदि हम यज्ञ का ही अर्थ वैदिक यज्ञ करते हैं तो क्रतु का अर्थ होगा यज्ञ के आयोजन से पूर्व यज्ञ के निमित्त किया जाने वाला संकल्प । अर्थ अपनी-अपनी सुविधानुसार ॥१६॥

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च ।।९/१७।।
            संपूर्ण जगत का माता, धारण करने वाला, पितामह हूं । ऋक्, यजु, सामवेद में जानने योग्य पवित्र ओंकार हूं ॥१७॥

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥९/१८॥
             कर्मों के अनुसार संपूर्ण प्राणियों का प्राप्तव्य, सबका स्वामी, साक्षी, प्रलयकाल में सूक्ष्म रूप से जिसमें संपूर्ण प्राणी रहते हैं वह निवास, सबकी शरण, सुहृद, उत्पत्ति, प्रलय, सबका आधार, कर्मबीज के संग्रह का स्थान जिसे हिन्दी में अनाज आदि संग्रह स्थान को कोठार कहते हैं वह, एवं संपूर्ण प्राणियों का अविनाशी बीज हूं ॥१८॥

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्यणाम्युत्सृजामि च ।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥९/१९॥
         सूर्य रूप से तपता हूं, वर्षा के निमित्त जल का संग्रह एवं पुनः वर्षा करता हूं, अमृत और मृत्यु का कारण विष भी मैं हूं एवं अर्जुन ! सत् और असत् मैं ही हूं ॥१९॥

त्रैविद्या मां सोमपाः पूततपापा यज्ञैरिष्ट्वास्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यमासाद्यसुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥९/२०॥
          तीनो वेदों में कही गई विधि के द्वारा सोमपान करके निष्पाप मनुष्य यज्ञ द्वारा इन्द्र आदि के रूप में मेरा यजन करके स्वर्ग प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते हैं । उस पुण्य साध्य देवलोक को प्राप्त करके वहां के दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं ॥२०॥

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥९/२१॥
            वे उन विशाल स्वर्ग के भोगों को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर पुनः मृत्युलोक में जन्म लेते हैं, इस प्रकार कामनाओं की इच्छा वाले आवागमन को प्राप्त होते हैं ।
              पूर्वोक्त श्लोक में ‘माम्’ का अर्थ इन्द्रादि देवता करने का तात्पर्य यह है कि स्वर्गादि देवताओं के आधीन है किन्तु वह देवत्व भी भगवान से ही प्राप्त है अतः उन उन देवताओं के रूप में भगवान का ही यजन होता है और देवताओं के रूप में भगवान ही कामपूर्ति करते हैं यह भाव है ॥२१॥

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥९/२२॥
               भगवान कहते हैं कि जब मैं ही सबके मूल में हूं और उन उन रूपों में मेरी ही उपासना करते हो तो फिर इतना नाटक अन्य किसी रूप में करने की क्या आवश्यकता है ? अन्य के स्थान मेरा ही अनन्य भाव से उपासना करो तो आपके योग प्राप्ति में आने वाली प्रत्येक बाधा से मैं बिना प्रार्थना किये स्वयं ही रक्षा करूंगा ॥२२।।

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥९/२३॥
             क्योकि जो श्रद्धा पूर्वक दूसरे देवताओं की उपासना करते वे भी मेरी ही विधि रहित उपासना करते हैं ॥२३॥

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥९/२४॥
            कारण कि संपूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी मैं ही हूं । किन्तु मेरे तात्त्विक इस रहस्य को न जानने के कारण वे भेदोपासक पतित हो जाते हैं अर्थात निरंतर जन्म-मृत्यु का असह्य कष्ट भोगते रहते हैं ॥२५॥

यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥९/२५॥
              चूंकि देवव्रती देवता को, पितृव्रती पितरों को, भूत-प्रेतों के उपासक उन को प्राप्त होते हैं, जबकि वे सभी नाशवान हैं अतः उनका उपासक भी बारंबार विनाश को प्राप्त होते हैं । वहीं  मेरा भक्त मुझ अविनाशी की स्वरूपतः विधि पूर्वक उपासना करके मुझ अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं । 
            सब विधियों की विधि यही है जो सबका मूल है और सबका आत्मा है उसको स्वरूप से जानकर एवं उसमें स्थित होना ही विधि पूर्वक उसकी आराधना करना है ॥२५॥

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥९/२६॥
             देवाताओं की उपासना में बहुत विधियां हैं किन्तु परमेश्वर की उपासना में भाव ही प्रधान है । पत्र, पुष्प, फल, जल जो भी कुछ उपस्थित है भाव पूर्वक उसे ही अर्पण करने मात्र से परमेश्वर प्रसन्नता पूर्वक उस मुझमें तादाम्य को प्राप्त भक्त के भावपूर्ण समर्पित वस्तु को स्वीकार कर लेता हूं ।
               यहां शंका होती है कि पहले नादत्ते कश्यचित्पापं…...७/१५ अर्थात परमात्मा किसी का पाप-पुण्य ग्रहण नहीं करता है फिर यहां वह पत्रपुष्पादि कैसे ग्रहण करने की विरोधी बात स्वयं भगवान कह सकते हैं ? इसका समाधान यह है कि वहां ज्ञानमार्ग में स्थित साक्षी आत्मस्वरूप का अभिन्न भाव में स्थित का वर्णन किया गया है । अतः जब कोई भिन्न है ही नहीं तो ग्रहण कौन करेगा ? किन्तु वहां भी तद्बुद्धयस्तदात्मानः ….. ७/१७ इत्यादि साधन रूप से कहा गया है । यहां पर भी उसी प्रकार अज्ञान के पराधीन हुए दूसरे देवताओं की आराधना करने वालों का परमेश्वर की प्राप्ति का सहज साधन भी अज्ञानमय ही है तथापि जैसे कोई कपड़े धुलने का साबुन कपड़े ठीक से साफ नहीं करता है तो दूसरे अच्छे साबुन से कपड़े को साफ कर देते हैं उसी प्रकार उन अज्ञानी जीवों को परमेश्वर में लगाने का यह साधन मात्र पत्रं पुष्पं आदि से कहा गया है । जब इस भाव में प्रयतात्मा अर्थात तल्लीनता या तादात्म्य भाव को प्राप्त हो जायेगा तब उनके लिए क्या आदेश होगा वह आगे कह रहे है जो तद्बुद्धयस्तदात्मानः को ही स्थूल रूप से कहकर फिर समत्व का उपदेश देकर उसी ज्ञान दशा को प्राप्त करा देंगे जिसे नादत्ते कश्यचित्पापं…. द्वारा कहा गया है ॥२६॥

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोसि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥९/२७॥
                जो करता, जो खाता है, जो देता है, जो यजन करता है, जो दान आदि देता है, जो तप करता है, हे कौन्तेय वह सब मुझे समर्पित कर दे ।
              इस प्रकार क्रिया मात्र का परित्याग कराकर कर्तापन का नाश करने के साधन का उपदेश करते हैं क्योंकि कर्तापन का अहं ही अज्ञान का मूल श्रोत है ॥२७॥

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपास्यसि ॥९/२८॥
             शुभ एवं अशुभ कर्मबंधनों से मुक्त होकर सर्वकर्म संन्यास अर्थात ज्ञानयोग द्वारा आत्म भाव से भी भली-भांति मुक्त होकर अर्थात मेरे से अभिन्न तादात्म्य प्राप्त करके मैं अमुक धर्म जाति, गोत्र आदि वाला हूं ऐसे अनात्मा में भी जो आत्मभाव देखता था उससे भी मुक्त होकर अर्थात जीव-ब्रह्म के भाव का भी नाश करके मुझ सर्वात्मस्वरूपता को प्राप्त करता है ॥२८॥

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योस्ति न प्रियः ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥९/२९॥
           जो मैं संपूर्ण प्राणियों में समान रूप से आत्मभाव से स्थित हूं, न मेरा कोई द्वेष करने योग्य है अर्थात मेरा कोई विरोधी नहीं हैं, न ही कोई मेरा प्रिय है इस प्रकार जो आत्मनिष्ठ मेरे मुझे साक्षी भाव से जानता है मैं उसका और वह मुझे प्रिय है ।
     अध्याय ७/१७ में प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च में प्रियः कहा था वही शैली भेद से यहां कहा गया है ॥२९॥

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥९/३०॥
           यदि अत्यंत दुराचारी अर्थात पापी भी मेरा अनन्य भाव से भजन करे तो वह भी साधु मानने योग्य है क्योंकि वह भली-भांति समाहित चित्त होकर मुझमें स्थित है ॥३०॥

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥९/३१॥
             वह मुझमें भली-भांति अनन्य भाव से स्थित पहले का पापात्मा भी शीघ्र ही मेरे तात्त्विक ज्ञान को प्राप्त करके अपुनरावर्ती शाश्वत शान्ति को प्राप्त कर लेता है क्योंकि मेरा भक्त कभी पतित नहीं होता है । 
                अध्याय छः में अर्जुन के प्रश्न पर योगी के पतन न होने की बात कहा था उसी को यहां पुनः स्पष्ट कर दिया ॥३१॥

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥९/३२॥
           क्योंकि पार्थ ! मेरा भली-भांति आश्रय लेने वाली कोल,भील, पुष्कल, किरात आदि एवं गीध गज आदि पाप योनि, ममता और मोह की खान स्त्री, लोभ की खान वैश्य, तमोगुण (अज्ञान का श्रोत) शूद्र भी अपुनरावर्ती परम गति को प्राप्त करते हैं ॥३२॥

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥९/३३॥
             फिर साक्षात पुण्यमय ब्राह्मण तथा परहित, पर रक्षा में लगा हुआ मेरे क्षत्रिय भक्त के लिए कहना ही क्या ? अर्थात जब पूर्व श्लोक वाले मुझे प्राप्त कर लेते हैं तो फिर ब्राह्मण,क्षत्रिय मेरी प्राप्ति कर लें इसमें कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, न ही प्रशंसनीय है ॥३३॥

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः ॥९/३४॥
             अतः मुझ आत्मास्वरूप सर्वात्मा में समभाव से स्थित मन वाला हो जा, उसी रूप में मेरा यजन कर, उसी रूप में मुझे नमस्कार कर। इस प्रकार मुझसे अभिन्न आत्मरूपता में स्थित हुआ आत्मपरायण मुझ समभावस्थ सर्वात्मा को ही प्राप्त करेगा ॥३४॥

इति तत्सदिति श्रीमद्भगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोऽध्यायः ।।


हरिः ॐ तत्सत् !                                              हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत्!!!

                                                     🌹श्रीकृष्णार्पणमस्तु🌹


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