गीतावालोकन अध्याय १०


ॐश्रीपरमात्मने नमः
अथ दशमोऽध्यायः
अध्याय सात से नौ तक परमेश्वर के निर्गुण का ज्ञान और सगुण का विज्ञान बताया । परमेश्वर के निर्गुण स्वरूप को तो सभी जानते ही हैं यह ज्ञान सभी को सुलभ है—  ‘निर्गुन रूप सुलभ अति’ किन्तु साढ़े तीन हाथ के शरीर वाला कृष्ण अथावा कोई भी प्राणी परमेश्वर कैसे हो सकता है ? यह तो संभवतः कदाचित कोई विरला ही जानता है ‘सगुन जान नहिं कोइ’ ‘सगुन अगुन नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ’ सगुण को कोई नहीं जानता है इसी बात को बताने के लिए कहा कि— अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः । परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥७/२४॥ अर्थात बुद्धिहीन मैं ही सर्वश्रेष्ठ अविनाशी परम सत्ता रूप हूं अर्थात सबको सत्ता देने वाला हूं ऐसे मन वाणी से अतीत को सामान्य स्त्री-पुरुष के समान उत्पन्न हुआ मानते हैं ।  अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् । परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥९/११॥ अर्थात संपूर्ण प्राणियों की ‘मैं’ के अर्थ आत्मा की परमसत्तात्मक स्वरूप से अनजान केवल कार्य-करण संघात वाला ही जानते हैं । अर्थात आत्मा के स्वरूप से पूर्णतः अपरिचित अज्ञानियों को आगे ‘विचेतशः’ अर्थात विकृत बुद्धि वाले कहते हुए उन्हें व्यर्थ आशा, कर्म, ज्ञान वाले कहते हुए राक्षस एवं असुर तक कह दिया । 
               तात्पर्य यह है कि जो शरीरस्थ ‘मैं’ का अवबोधक आत्मा को जो प्रकृति से अतीत सबकी आत्मा रूप परमसत्ता को नहीं जानता वही राक्षर एवं असुर है । अब प्रश्न यह है कि ‘मैं’ के अर्थ आत्मा को यह कैसे जाना जाये कि वही परमसत्तात्मक है ? तो यद्यपि इस विज्ञान के विभिन्न साधन एवं स्वरूप को पहले कह चुके हैं तथापि मुमुक्षुओं पर अनुग्रह करने के लिए अपनी विशिष्ट विभूतियों के माध्यम से पुनः जड़-चेतन रूप में प्रतिपादित करते हुए सबको अपने से अभिन्न बताते हुए स्वयं को सबसे भिन्न बताने के लिए इस दसवें अध्याय का प्रारंभ करते हैं—
 श्रीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः ।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥१०/१॥
            श्रीभगवान कहते हैं कि मुमुक्षुओं के हितसाधन के लिए मैं यह श्रेष्ठ प्रवचन पुनः कहता हूं जिस पर मुमुक्षुओं को गंभीरता से ध्यान देना होगा ॥१॥

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥१०/२॥
          संपूर्ण महर्षियों, देवताओं के आदि मुझ सर्वेश्वर के प्राकट्य को महर्षि और देवता भी नहीं जानते ।
              भाव यह है कि जिसके प्राकट्य को महर्षि आदि नहीं जानते तो विषयी मनुष्य कैसे जान सकता है ? अर्थात कोई विषयी मनुष्य नहीं जान सकता है ॥१॥

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१०/३॥
        जो मुझे अजन्मा, अनादि, संपूर्ण लोकों का स्वामी जानता है वह विवेकशील इसी मृत्युलोक में ही संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है अर्थात जीते-जी मुक्त हो जाता है ॥३॥

बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥१०/४॥
         बुद्धि, परमेश्वर के स्वरूप का ज्ञान, अनात्म पदार्थ से मोहित न होना, क्षमा, सत्य, इन्द्रियों का दमन, मन का विषयों से उपशम अर्थात विरत होकर शान्त होना, सुख, दुःख, उत्पत्ति, विनाश तथा भय एवं निर्भयता ॥४॥

अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥१०/५॥
           अहिंसा, समता, अपने आप में संतुष्टि, इन्द्रिय निग्रह आदि तप, दान, यश, अपयश ये प्राणियों के भिन्न-भिन्न भाव मुझ से ही उत्पन्न हुए हैं ॥५॥

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।
मद्भावा मनसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥१०/६॥
             पूर्व काल में सप्त ऋषि, सनकादि चार ऋषि, चौदह मनु ये मेरे मानसी संकल्प से उन पदों को प्राप्त मेरा ही स्वरूप हैं, जिनकी ये संपूर्ण प्रजा है ॥६॥

एतां विभूतियोगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥१०/७॥
             ये सभी मेरी माया का का ऐश्वर्य हैं, इस प्रकार जो मुझे तत्त्वतः जानता है वह योगमार्ग में स्थित हुआ समत्व बुद्धि द्वारा अविचल भाव से मेरी उपासना करता है इसमें संशय नहीं है ।
              भगवान ने अध्याय चार में अपनी उत्पत्ति का हेतु ‘आत्ममाया’ को बताया था अर्थात ये माया आत्म रूप परमेश्वर से अभिन्न है । उसी अभिन्न माया ने मेरे ही चैतन्य प्रकाश का आश्रय लेकर पूर्वकाल में सर्वप्रथम उपरोक्त का सृजन किया, फिर उनके माध्यम से ये संपूर्ण प्रजा इस संसार में व्याप्त हो गईं । यही मेरी अभिन्न माया का ऐश्वर्य है जो स्वयं सबके सामने प्रस्फुटित होकर मुझ पर कामनाओं का आवरण करके स्थित है ॥७॥

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्त्वा भजन्ते मां बुधा भाव समन्विताः ॥१०/८॥
          जबकि सबके मूल में मेरे द्वारा ही सभी उत्पन्न होकर चेष्टाएं करते हैं, इस प्रकार विवेकशील जानकर मेरे सत्तात्मक भाव से भावित होकर अर्थात अभिन्न रूपता का अनुभव करते हुए अभिन्न रूप से ही जानते हैं ॥८॥

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥१०/९॥
              ऐसे अभिन्न भावापन्न विवेकशील परस्पर मेरे स्वरूप का कथन, श्रवण करते हुए मुझ में ही मन प्राण को अर्पित करके अभिन्न रूप से जानते हुए मुझ आत्मस्वरूप में ही नित्य रमण करते हैं और संतुष्ट रहते हैं ।
               यहां पर ‘माम्’ का अर्थ आत्मा ही लिया गया है जिसका कारण यह है कि आगे १०/२० में स्वयं भगवान ही अपने को सबका आत्मा कहते हैं ॥९॥

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येनमामुपयान्ति ते ॥१०/१०॥
               उन निरंतर मुझमें ही रमण करने और संतुष्ट रहने वाले अभिन्न भावापन्न मुमुक्षुओं को मैं ज्ञानयोग अर्थात आत्मा-परमात्मा के एकत्व का साधन मैं स्वयं देता हूं जिसके द्वारा अभिन्न भावापन्न का अनुभव करने वाला परिछिन्नता की लकीर को मिटाकर मुझ परब्रह्म स्वरूपता को प्राप्त हो जाता है ॥१०॥

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥१०/११॥
              उन पर अनुग्रह करने के लिए ही मैं अज्ञान से उत्पन्न अन्धकार यानी जिससे आत्मा-परमात्मा का तात्त्विक ज्ञान छिपा होने से उसका अनुभव नहीं कर पाते उस अज्ञानांधकार का नाश करने के लिए आत्मभाव में स्थित होकर ज्ञानदीपक के रूप में प्रकाशित हो जाता हूं ।
            भाव यह है कि जब अभिन्न भाव का निरंतर मुमुक्षु अनुभव करता है तब वह परम तत्त्व और कहीं नहीं बल्कि जो ‘मैं’ का अर्थ आत्मा है उसी आत्मभाव में स्थित हुआ उसमें आत्मा-अनात्मा के विवेक का स्फुरण करा देता हूं जिसके माध्यम से भेद की लकीर मिटाकर अभेद को प्राप्त कर लेता है, जैसे दीपक के प्रकाश में सामन्य मनुष्य अपना काम कर लेते हैं । इसीलिए आत्मा-अनात्मा के विवेक को ज्ञानदीप के प्रकाश के समान कहा है ॥११॥

                  भगवान के स्वरूप और विभूति महिमा को सुनकर अर्जुन विस्तार से विभूति एवं महिमा के जानने के लिए भगवान की स्तुति करते हैं—

अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥१०/१२॥
           अर्जुन प्रार्थना करते हैं हुए कहते हैं—  आप परब्रह्म, परम धाम, परम पवित्र, दिव्य शाश्वत पुरुष, आदिदेव, अज एवं विभु अर्थात व्यापक हो ॥१२॥

आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥१०/१३॥
           आपके लिए सभी ऋषि, देवर्षि नारद, असित, देवल, एवं व्यास जी भी कहते हैं, स्वयं आप भी मुझसे कह रहे हैं ॥१३॥

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥१०/१४॥
            हे केशव !  सभी लोग ऐसा ही मानते हैं जैसा आप कह रहे हो कि आपके प्राकट्य को को अर्थात संपूर्ण स्थावर जंगम स्वरूप व्यक्त भाव को देवता या दानव कोई नहीं जानते ॥१४॥

स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थत्वं पुरुषोत्तम ।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥१०/१५॥
             हे पुरुषोत्तम ! आप स्वयं ही स्वयं को जानते हो ।
            हे भूतभावन अर्थात प्राणियों के जनक ! भूतेश अर्थात प्राणियों पर शासन करने वाले ! देवताओं के भी देवता एवं जगत के पालन करने वाले— ॥१५॥

वक्तुमहर्सस्य शेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वां व्याप्य तिष्ठसि ॥१०/१६॥
               आप अपनी दिव्य को जिनसे ये संपूर्ण जगय व्याप्त करके स्थित हो कहने में समर्थ हो ॥१६॥

कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् ।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥१०/१७॥
              हे योगिन् ! भगवान् ! किस प्रकार और किन किन भावों में आपका मेरे द्वारा निरंतर चिंतनीय हो ॥१७॥

विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥१०/१८॥
            हे जनार्दन ! अपनी उन मायामय विभूतियों को पुनः मुझसे कहो क्योंकि अमृतमय आपके वचनों को सुनकर तृप्त नहीं हो रहा हूं ॥१८॥

श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥१०/१९॥
             भगवान कहते हैं ठीक है, मेरी विभूतियों का अन्त नहीं है फिर भी तेरे लिए अपनी प्रधान विभूतियों को कहूंगा ॥१९॥

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥१०/२०॥
            अज्ञान पर विजय पाने वाले विवेकशील यह जानते हैं कि संपूर्ण प्राणियों का आदि, अन्त एवं मध्य मैं ही हूं ॥२०॥

                यहां से आगे अपनी स्थावर जंगम प्रधान विभूतियों का वर्णन करते हैं जिनका संक्षेप से एक साथ अध्याय के अन्त में मात्र साध्य विभूतियों को चिह्नित करूंगा—
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् ।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥१०/२१॥
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥१०/२२॥
रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् ।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ॥१०/२३॥
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ।
सेनानीनामहं स्कंधः सरसामस्मि सागरः ॥१०/२४॥
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥१०/२५॥
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः ।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ॥१०/२६॥
उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम् ।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् ॥१०/२७॥
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक् ।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥२८॥
आनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् ।
पितॄणामर्यमा चाश्मि यमः संयमतामहम् ॥१०/२९॥
प्रह्लाश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम् ।
मृगणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ॥१०/३०॥
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोसामस्मि जाह्नवी ॥१०/३१॥
सर्गणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।
अध्यामविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥१०/३२॥
अक्षराणामकारोस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च ।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखम् ॥१०/३३॥
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् ।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥१०/३४॥
बहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।
मासानां मार्गशीषोऽहं ऋतूनां कुशुमाकरः ॥१०/३५॥
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्विनामहम् ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्वतामहम् ॥१०/३६॥
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥१०/३७॥
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् ।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ॥१०/३८॥
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥१०/३९॥
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप ।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ॥१०/४०॥
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छत्वं मम तेजोंऽशसमुद्भवम् ॥४१॥
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥१०/४२॥
                 विभूति योग में ध्यान देने योग्य तथ्य— हम पहले यह बता देना उचित समझते हैं कि हमने परमेश्वर के गुणानुवाद के अन्तर्गत संपूर्ण अनुवाद इसलिए नहीं किया कि आज सभी लोग अनुवाद पुस्तकों में पढ ही रहे हैं और मैं भी दो बार अनुवाद कर ही चुका हूं । अतः हम जितना साधना दृष्टि से स्पष्टीकरण उचित समझते हैं उतना ही अनुवाद कर रहा हूं । अतः पूर्णतः अनुवाद हमारे अन्य निबंध में देखें ।
                हमें पहले तो यह समझना होगा कि भगवान ने ज्ञान-विज्ञान सहित अपने स्वरूप के कथन की प्रतिज्ञा की थी किन्तु इन विभूतियों में ऐसा क्या विज्ञान है जिसे पुनः विस्तार से कहने की आवश्यकता पड़ गई ? इसके लिए पहले अध्याय सात का अवलोकन करते हैं कि वहां पर विभूतियों के कहने का कारण क्या था ?
            भगवान स्वयं को संपूर्ण प्राणियों का निमित्तोपादान कारण बताते हैं ७/६ । इसी बात को समझाने के लिए कहते हैं— मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति ७/७ अर्थात जो कुछ भी स्थावर जंगम है वह कुछ भी मुझसे भिन्न है ही नहीं अर्थात वह सब मेरा ही स्वरूप है । इसी बात को पुष्ट करने के लिए चार श्लोकों में अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहते हैं संपूर्ण प्राणियों का जीवन अर्थात जीवनी शक्ति प्राण, संपूर्ण प्राणियों का सनातन बीज, यहां तक मर्यादा का अतिक्रमण न करने वाला संतानोत्पत्ति का हेतु काम मैं हूं, इत्यादि कहकर अपनी विभूतियों के माध्यम से जगत से अपनी अभिन्नता बता दी । विचारणीय तथ्य यहां यह है कि जब प्राण भी भगवान ही हैं तो आप कार्य-करण में अहंता पालने वाले प्राणों से भिन्न कौन हैं ?
             अध्याय नौ में कहते हैं— ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते । एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥९/१५॥ अर्थात अन्य अर्थात ज्ञानयोगी विश्वरूप में अगल अलग बहुत प्रकार के भेदों से स्थित मेरी ब्रह्मात्मैक्य रूप में आत्मा-अनात्मा के विवेक द्वारा मेरी उपासना करते हैं । इसी बात को बताने के लिए सबसे पहले कहते अहं क्रतुरहं यज्ञः अर्थात जिस वैदिक नित्य-नैमित्तिक कर्तव्य कर्म को करने के लिए जो मन में कर्तव्य कर्म के प्रति मन में संकल्प बनता है वह मैं हूं एवं उस सत्य संकल्प को क्रिया रूप देने के लिए जो निष्काम कर्तव्य पालन है वह मैं हूं । चार श्लोकों में विभूति का वर्णन करते हुए आगे कहते हैं— अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन १/१९ जीवन को धारण करने की जो अमृतस्वरूप शक्ति है वह मैं हूं, मृत्यु का निमित्त विष (विष तुल्य विभिन्न प्रकार के रोग) भी मैं ही हूं । इतना ही नहीं जो कुछ भी सत्य सा दिखने वाला जगत है और अज्ञानी की जो समझ में नहीं आता आता वह उसकी दृष्टि से असत रूप भी मैं ही हूं । यहां पर विचारणीय तथ्य यह है कि जब वह ही संकल्प और कर्तव्यकर्म है, अमृत और विष यानी जीवन और मृत्यु है । इससे भी भिन्न यदि कुछ सत् या असत् है वह भी वही है तो आप कौन हो ?
                अब इस अध्याय दस में प्रारंभ करते हैं कि संपूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित ‘मैं’ का अर्थ आत्मा भी परमेश्वर ही हैं । संपूर्ण जगत का आदि, मध्य और अन्त भी परमात्मा ही हैं, तो इससे भिन्न आप कौन हो ? 
              इन्द्रियों में मन, प्राणियों की चेतना परमात्मा ही हैं तो इससे भिन्न आप क्या हो ? प्रजनन हेतु कामदेव परमेश्वर हैं तो इससे भिन्न अपने किस प्रकार किसे और आपको किसने उत्पन्न किया ? अक्षय काल परमेश्वर है, मृत्यु परमेश्वर है, वाणी परमेश्वर है, मौन परमेश्वर है, परमेश्वर से भिन्न कुछ भी है नहीं १०/३९ तो फिर परमेश्वर से भिन्न आप कौन हो जो चराचार जगत से बाहर और भिन्न अहंता धारण करने वाले हो ?
             साधन-साध्य के अन्तर्गत संपूर्ण वेदों में जानने योग्य एकमात्र ओंकार ९/१७ भी परमेश्वर है तपस्वियों का तप, बुद्धिमानों की बुद्धि परमेश्वर है, उत्पत्ति और प्रलय भी वही है तो इससे भिन्न आप कौन हो ? जिसके माध्यम से आत्मा-अनात्मा का विवेक होता है वह अध्यात्म विद्या परमेश्वर है, मंत्र परमेश्वर है, यज्ञों में जप यज्ञ (अनुष्ठेय मंत्र) परमेश्वर हैं, उच्चारण किये जाने वाले वर्णों में अकार परमेश्वर है, तो इससे भिन्न आप किसको जानने के इच्छुक हैं ? और भिन्न रूप में आप कौन हैं एवं किसे जानना चाहते हैं ? किसका अनुष्ठान करना चाहते हैं ?
           इतन ही नहीं, सर्प, पक्षी, पशु,  इत्यादि जो कुछ विशेषता को लेकर गिनाया उन विशेषताओं वाला तो मैं हूं ही किन्तु प्राणियों का बीज मैं ही हूं अतः वे सभी मेरे बिना कोई नहीं हैं अर्थात वे मुझसे अभिन्न रूप से मुझमें ही स्थित मेरा ही स्वरूप हैं । यहां पर रुद्राष्टाध्यायी का पांचवां अध्याय चिन्तनीय है ।
               इस प्रकार सब कुछ तो मुझ सर्वात्मा परमेश्वर का स्वरूप ही है अर्थात परमेश्वर से अभिन्न आत्ममाया का ही ऐश्वर्य है । इसका अन्त नहीं है क्योंकि परमेश्वर अनन्त है इसलिए योग माया का अभिन्नता के कारण ऐश्वर्य भी अनन्त है, अतः प्रधान रूप से मुमुक्षुओं को जीवात्मैक्य दृष्टि से परमतत्त्व को समझाने के लिए  विभूतियां कही गई हैं । फिर भी जहां कहीं न्याय संगत धन, बल आदि कुछ भी दिखता है उसको भी मेरा अंश समझो ।
               यहां एक बात और ध्यान देने योग्य है कि अध्याय सात में भगवान ने कहा था— ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ७/१८ अर्थात ज्ञानी मेरा आत्मा यानी स्वरूप ही है ऐसा मेरा मत है । और यहां जितनी विशेष विभूतियां हैं जिन स्थावर जंगम प्राणियों का परमेश्वर तत्त्व से सीधा संबंध है, वे हिमालय, इन्द्र, गरुण, वासुकि सर्प, अनन्त नाग, गरुड़, कामधेनु आदि को कहा मैं ही हूं अर्थात जिसने सीधा आत्मस्वरूप परमेश्वर को जान लिया वह अभिन्न वही हो गया ‘जानत तुम्हहिं तुम्हहिं होइ जाई’ और जिनका संबंध आत्मैक्य रूपता से नहीं है उनको यहां अपने तेज से उत्पन्न अंश कहा है । तात्पर्य यह है कि मेरा अंश होने से अन्य प्राणी भी अविनाशी और मुझसे अभिन्न हैं तथापि वे अज्ञान की निवृत्ति करके मुझसे अभिन्न मोक्ष स्वरूपता को प्राप्त कर सकते हैं ।
              अब प्रश्न यह उठता है कि क्या जितनी माया है उतना ही परमेश्वर है तो इसके कहते हैं कि बहुत जानकर क्या करेगा ? संपूर्ण जगत को अपने एक अंश में व्याप्त करके स्थित हूं । मतलब यह कि माया मुझे कभी संपूर्ण रूप से मेरी समानता नहीं कर सकती है क्योंकि उसका भी अधिष्ठान मैं ही हूं ।
             इस प्रकार विभूतियोग के माध्यम से परमेश्वर कृष्ण ने संपूर्ण जीवों की अपने से एकता का प्रतिपादन करके यह बता दिया कि भिन्न भाव से देखने वाले पूर्णतः अज्ञानी हैं इसीलिए भिन्न-भिन्न देवों की फलाकांक्षा को लेकर उपासना करते हैं । अब एक प्रश्न और अर्जुन के मन में उठेगा कि जब संपूर्ण जगत आपके एक अंश में स्थित है तो आपका विराट स्वरूप कितना विशाल है ? इसका उत्तर देने के लिए विराट रूप का दर्शन होगा जिसमें अर्जुन श्रीकृष्ण के किसी एक ही भाग में अन्त प्रकार की आदि, मध्य और अन्त रहित सृष्टियों का दर्शन करेगा किन्तु वह पूर्णतः की कौन कहे आधा भी दर्शन नहीं कर सकेगा और सौम्य स्वरूप के लिए प्रार्थना करता हुआ मनुषी रूप में ही शान्ति को प्राप्त करेगा ॥२१-४२॥ ओ३म् !

।।ॐतत्सदिति श्रीमद्भगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्ष्णार्जुनसंवादे विभूतियोगो नाम दशमोऽध्यायः ।।

   हरिः ॐ तत्सत् !                 हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत्!!!
   🌹श्रीकृष्णार्पणमस्तु🌹

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