गीतावलोकन अध्याय ७
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
अथ सप्तमोऽध्यायः
अध्याय छः के अन्तिम श्लोक में भगवान ने कहा कि समत्वयोगियों में भी जो जो आत्मस्वरूप में स्थित होकर श्रद्धा से मेरा चिंतन करता है वह श्रेष्ठ है । आत्मस्वरूप में स्थित होना यानी त्रिगुणात्मक भावों से ऊपर उठकर निर्गुण निराकार स्वरूप में स्थित होता हुआ भी जो मेरे गुणात्मक यानी सगुण-साकार ईश्वर स्वरूप का भजन करना ये दोनो बातें एक साथ होना युक्तिसंगत नहीं लगता है, अतः इसी को स्पष्ट करने के लिए यह सप्तम अध्याय प्रारंभ होता है—
श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्र मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥७/१॥
श्रीभगवान कहते हैं कि पार्थ ! मुझ सगुण परमेश्वर में आसक्त मन वाला जिस प्रकार योग (ज्ञानयोग) का अनुसंधान करेगा एवं जिस प्रकार मेरे स्वरूप को तत्त्वतः जानेगा वह सुन— ॥१॥
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥७/२॥
तेरे लिए उस परोक्ष ज्ञान को अरोक्ष अनुभूति के सहित भली-भांति कहूंगा जिसे जानकर इस लोक में कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता है ॥२॥
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥७/३॥
इस ज्ञान की सिद्धि के लिए हजारों मनुष्यों में कोई एक प्रयत्न करता है, उन प्रयत्नशीलों में भी कोई एक इस ज्ञान को प्राप्त करता है, इस ज्ञान को प्राप्त करने वालों में भी कोई एकाध मुझे स्वरूपत: तत्त्व से जानता है ॥३॥
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनोबुद्धिरेव च ।
अहङ्कारं इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥७/४॥
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार ये भिन्न-भिन्न रूपों वाली आठ प्रकार प्रकृति ॥४॥
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥७/५॥
इस प्रकार अपरा प्रकृति को जानो, इस अपरा से भिन्न मेरी जीवस्वरूपा परा प्रकृति को जानो जिसने इस जगत को धारण किया है ॥५॥
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥७/६॥
ये परा और अपरा दोनो ही प्राणियों की उत्पत्ति के साधन हैं । मैं संपूर्ण जगत की उत्पत्ति, तथा प्रलय हूं ॥६॥
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥७/७॥
परमार्थ पथ के पथिक को समझना चाहिए कि मुझसे अतिरिक्त यह संपूर्ण जगत मणियों में धागे के समान मुझमें पिरोया हुआ है अर्थात संपूर्ण संसार का सूत्रधार मैं ही हूं ॥७॥
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥७/८॥
जल में रस, सूर्य-चन्द्र की प्रभा, सभी वेदों में प्रणव, आकाश में शब्द, मनुष्यों का पौरुष अर्थात पुरुषार्थ हूं ॥८॥
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥७/९॥
पृथ्वी में स्वाभाविक पवित्र गंध, अग्नि का तेज, संपूर्ण प्राणियों का जीवन, तपस्वियों का तप हूं ॥९॥
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥७/१०॥
संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति का अक्षय बीज, बुद्धिमानों की निर्णायक बुद्धि, तेजस्वियों का तेज मुझे ही जान ॥१०॥
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥७/११॥
स्वार्थ रहित बलवानों का बल, धर्म को बाधा न पहुंचाकर संतानोत्पत्ति का हेतु काम हूं ॥११॥
ये चैव सात्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥७/१२॥
और जो भी सात्त्विक, राजस, तामस भाव हैं वे सब मुझसे हैं अर्थात मुझसे उनकी भिन्न सत्ता नहीं है किन्तु मैं उनमें नहीं हूं ।
इसका स्पष्टीकरण श्लोक तीस में किया गया है ॥१२॥
त्रिभिगुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥७/१३॥
ये संपूर्ण जगत त्रिगुणात्मक भावों से मोहित होने के कारण मुझ परम अव्यय सर्वात्मा को नहीं जानता ॥१३॥
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥७/१४॥
ये तीन गुण ही गुणमयी, दुर्लंघ्य मेरी दैवी की माया है । जो मेरा ही आश्रय लेकर मेरे स्वरूप को जानते हैं वे इस माया को पार कर जाते हैं । भाव यह है कि जगत गुणात्मक है हमें गुणों से ऊपर उठना है तो गुणों में ही जिस परमेश्वर तत्त्व से गुण प्रकाशित हो रहे हैं उस परमेश्वर तत्त्व का दर्शन करने से गुणों से पार पाया जा सकता है अर्थात गुणों के अधिष्ठान का ज्ञान होने गुणों में महत्बुद्धि नष्ट हो जाने से आत्मबुद्धि का प्रकाश होते ही त्रिगुणात्मक जगत को पार किया जा सकता है । यानी जन्मादि बंधनों से मुक्ति मिल जायेगी ॥१४॥
न मां दुष्कृतिनो मूढ़ाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥७/१५॥
यहां पर गुणों में रमणीय बुद्धि के कारण विवेक का हरण होने से आसुर भाव को प्राप्त हुए नराधम जो स्वार्थ परायण हुए समाज में अत्याचार, अनाचार फैलाते हैं, कभी संयमित नहीं रहते वे मूढ मुझे कभी नहीं जानते ॥१५॥
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥७/१६ ॥
आर्त, जिज्ञासु, धन की कामना वाला और ज्ञानी ये चार प्रकार के पुण्यात्मा मनुष्य मेरा भजन करते हैं ॥१६॥
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्महं स च मे प्रियः ॥७/१७॥
उनमें से एक मात्र एकनिष्ठ मेरी भक्ति श्रेष्ठ है क्योंकि ज्ञानी मुझसे नित्ययुक्त अर्थात मुझसे अभिन्न होने से मैं उसे अत्याधिक प्रिय हूं और वह मुझे अत्यधिक प्रिय है ॥१७॥
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥७/१८॥
उपरोक्त चारो भक्त उदार स्वभाव वाले हैं तथापि ज्ञानी मेरा स्वरूप ही है ऐसा मैं मानता हूं,। क्योंकि वह मुझ अतुलनीय परमस्वरूप से अभिन्न होकर स्थित है ॥१८॥
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥७/१९॥
वह बहुत जन्मों के निरंतर प्रयत्न के फलस्वरूप वासुदेव ही सब कुछ है ऐसा मुझे स्वरूप से जानने वाला व्यापक भाव को प्राप्त महात्मा अत्यंत दुर्लभ है ॥१९॥
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥७/२०॥
उन उन कामनाओं के द्वारा अर्थात् जिन जिन लोक परलोक की कामना के कारण जिनका आत्मा-अनात्मा का विवेक हरण कर लिया गया है वे मुझ सर्वेश्वर से भिन्न अन्या देवताओं की उपासना करते करते हैं, उन उन अपनी स्वाभाविक प्रकृति के द्वारा निश्चित किये गये नियमों में स्थित हो जाते हैं ॥२०॥
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥७/२१॥
जो जिसकी श्रद्धा से पूजा करता है मैं उसकी श्रद्धा को उसी में स्थिर कर देता हूं ॥२१॥
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥७/२२॥
वह देवोपासक यद्यपि सबके मूल में फलदाता मैं ही हूं जो भी उनकी श्रद्धा के अनुसार की गई उपासना के अनुसार उन उन कामनाओं को प्राप्त भी करते हैं जो मेरे द्वारा जिस देवता के निमित्त जिस फल का दाता निश्चित किया गया है ॥२२॥
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्तः यान्ति मामपि ॥७/२३॥
किन्तु उन अल्पबुद्धि वालों की उपासना का फल नाशवान होता है, देवताओं के उपासक देवताओं को और मेरा उपासक मुझे ही प्राप्त होता है ।
अर्थात विनाशी देवता की उपासना का स्वर्गादि नाशवान फल होता है और मुझ अविनाशी की उपासना का अविनाशी फल होता है । अतः अविनाशी परमात्मा की उपासना करना चाहिए यह भाव है ॥२३॥
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजान्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥७/२४॥
बुद्धिहीन मनुष्य मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी परमस्वरूप को न जनते हुए मुझ मन वाणी से अतीत अविनाशी परमात्मा को भी साधारण स्त्री-पुरुष के समान साढ़े तीन हाथ के शरीर वाला मानते हैं ॥२४॥
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥७/२५॥
इन मूढ़ मनुष्य मेरे अविनाशी स्वरूप को योगमाया से भली-भांति ढका हुआ होने के कारण सबके प्रकाश में नहीं आता अर्थात अनुभव नहीं कर सकते ॥२५॥
वेदाहं समतीतानि वर्तमानि चार्जुन ।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥७/२६॥
मैं संपूर्ण प्राणियों के भूत, भविष्य और वर्तमान को जानता हूं, किन्तु वे मुझे बिल्कुल नहीं जानते ॥२६॥
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परंतप ॥७/२७॥
अज्ञान से उत्पन्न इच्छा, द्वेष रूप द्वन्द्व के कारण सभी प्राणी मोहित होकर जन्म-मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं ॥२७॥
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढ़व्रताः ॥७/२८॥
किन्तु जिन मनुष्यों के पुण्यकर्मों द्वारा पाप नष्ट हो गये हैं वे अज्ञानमय द्वान्द्व से भली-भांति मुक्त होकर दृढ़तापूर्वक मेरा भजन करते हैं अर्थात वे मेरे स्वरूप का विचार करते हैं ॥२८॥
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्मतद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥७/२९॥
जो वृद्धावस्था, मृत्यु से मुक्ति के लिए मुझ परमेश्वर का आश्रय लेकर यत्न करते हैं वे उस ब्रह्म को संपूर्ण अध्यात्म एवं संपूर्ण कर्म के सहित जानते हैं ।
अध्यात्म अर्थात गीता के अनुसार जीव तो एक ही होता है किन्तु संपूर्ण कहने का तात्पर्य यह है कि भिन्न रूपों में जो दिखने वाले संपूर्ण प्राणियों हैं उन सबको एक आत्मभाव से जानता है । और संपूर्ण कर्मों को जानने का तात्पर्य यह है कि संपूर्ण कर्म जिसकी प्राप्ति के निमित्त किये जाते हैं उसी एक को जान लेने मात्र से संपूर्ण कर्मों का फल परमात्मा प्राप्त होने से सभी अशेष कर्मों को जानने जैसा है ॥२९॥
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥७/३०॥
जो अधिभूत, अधिदैव एवं अधियज्ञ के सहित जीवन के अन्तिम क्षण में भी मुझे जान लेता है वही मुझसे अभिन्नचित्त वाले मुझे स्वरूप से जानते हैं ।
यहां अधिभूत से संपूर्ण स्थूल कार्य आकाश आदि कार्य जगत जो प्रकृति का तामसी कार्य है, अधिदैव यानी प्रकृति-पुरुष का राजसी जीव भाव, अधियज्ञ सब पर अनुग्रह करने वाला प्रकृति-पुरुष का सात्त्विक कार्य इन त्रिगुणात्मक स्वरूप में स्थित संपूर्ण जगत और उन सबका कारण विशुद्ध प्रकृति के पार स्थित माम् का अर्थ आत्मभाव को जो जानता है वही अभिन्न चित्त वाला मुमुक्षु मुझे स्वरूप से जानता अर्थात प्राप्त होता है ॥३०॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्यायः ।।
हरिः ॐ तत्सत् ! हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!
🌹श्रीकृष्णार्पणमस्तु🌹
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