गीतावलोकन अध्याय १३
ॐश्रीपरमात्मने नमः
अथत्रयोदशोत्रयोदशऽध्यायः
श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥१३/१॥
श्रीभगवान कहते हैं कि ‘यह’ करके जाना जाने वाला शरीर यानी नाम रूप क्षेत्र इस प्रकार कहा गया है, इस नामरूपात्मक क्षेत्र को जानने वाला क्षेत्रज्ञ ऐसा क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को जानने वाले कहते हैं ॥१॥
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ।।१३/२।।
हे भारत ! नाम रूप से भिन्न सभी क्षेत्रों में ‘मैं’ का अर्थ जो ज्ञाता है वह मुझे जान । जो जो क्षेत्र (प्रकृति) एवं क्षेत्रज्ञ (पुरुष) का ज्ञान है वही मेरा अर्थात भगवान का मत है ॥१॥
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् ।
स च यो प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु ॥१३/३॥
वह क्षेत्र जो है, जैसा है, जिन विकारों वाला है जिससे जो उत्पन्न हुआ है एवं वह क्षेत्रज्ञ जिस प्रभाव वाला है उसको संक्षेप में मुझसे सुन ॥३॥
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥१३/४॥
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विषय में बहुत प्रकार से ऋषियों ने भिन्न-भिन्न छन्दों (वैदिक ऋचाओं) द्वारा गया अर्थात कहा है । उसी का ब्रह्म सूत्र में चार पादों में मेरे स्वरूप का भली-भांति निर्धारण किया गया है ॥४॥
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥१३/५॥
पांच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, तथा अव्यक्त प्रकृति एवं ग्यारह इन्द्रियां और पांच इन्द्रियों के विषय ॥५॥
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥१३/६॥
इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल शरीर, चेतना, धारणा ये सभी संक्षेप में विकार सहित क्षेत्र कहे गये हैं ॥६॥
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥१३/७॥
मान रहित, दंभ रहित, अहिंसा का पालन करने वाला, क्षमाशील, सहज स्वाभाविक सरलता, आचार्य की उपासना, स्वभाव से ही बाहर भीतर की पवित्रता, स्थिर एकनिष्ठ बुद्धि, जितेन्द्रिय ॥७॥
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ।।१३/८।।
इन्द्रियों के वैराग्य के लिए धन, बल, ज्ञान के अहंकार से रहित होकर जन्म-मृत्यु, बुढापा और रोग से होने वाले दुःखों का बारंबार अनुसंधान करना ॥८॥
असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥१३/९॥
शरीर से सहित सांसारिक पदार्थों में आसक्ति का न होना, स्त्री, पुत्र, घर आदि में घनिष्टता का अभाव, इष्ट, अनिष्ट अर्थात अनुकूल प्रतिकूल की प्राप्ति में निरंतर चित्त का सम होना अर्थात एकरस विक्षेप रहित होना॥९॥
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥१३/१०॥
व्यभिचार रहित मुझ में अनन्य भाव से एकनिष्ठ, एकान्तसेवी, जनसमूह में रुचि न होना ॥१०॥
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥१३/११॥
आत्मस्वरूप का प्रतिपादन करने वाले साधनों में तत्पर रहना, आत्मा-अनात्मा के विवेक से उत्पन्न तत्त्व निश्चय का दर्शन अर्थात अनुभव करना । अमानित्व से लेकर यहां तक इस प्रकार यह ज्ञानस्वरूप आत्मा का स्वरूपतः प्रतिपादन करने वाले साधनों को ही यहां ज्ञान कहा गया है । इससे भिन्न जो आत्मतत्त्व का बोध न करा सके वह अज्ञान ही है ॥११॥
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥१३/१२॥
जिसको जानकर अमृतत्व प्राप्त किया जाता है उसको भी जानना चाहिए, उसको कहूंगा । वह ब्रह्म नाम वाला अनादि वाला अर्थात अजन्मा है । उसे न सत् कह सकते हैं और न असत् ही कह सकते हैं ॥१२॥
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥१३/१३॥
वह प्रत्यगात्मा सभी ओर हाथ, आंख, पांव, सिर, मुख, कान वाला है, सबको ढककर यानी अपने अन्दर समेट कर स्थित है ॥१३॥
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥१४/१४॥
सभी इन्द्रिय विषयों का प्रकाशन करने वाला, सभी इन्द्रियों से रहित, अनासक्त होकर भी सबका भरण पोषण करने वाला, तथा निर्गुण होते हुए भी सभी विषयों का उपभोग करने वाला ॥१४॥
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥१३/१५॥
संपूर्ण चर-अचर प्राणियों में बाहर भीतर एकरस स्थित तथा सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, अज्ञानी के लिए अत्यंत दूर एवं अविज्ञेय तथा वही प्रत्यगात्मा ज्ञानी का स्व-स्वरूप होने से अत्यंत पास में है ॥१५॥
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥१३/१६॥
तथा अखंड एकरस होकर भी संपूर्ण प्राणियों में के रूप में अनेक प्रकार से भिन्न-भिन्न हुआ सा स्थित है । वह जानने योग्य प्रत्यगात्मा ही संपूर्ण प्राणियों का भरण-पोषण तथा उत्पन्न एवं ग्रास (संहार) करने वाला है ॥१६॥
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥१३/१७॥
वह इदंता से रहित प्रत्यगात्मा ज्योतियों का ज्योति यानी अज्ञान से अतीत समस्त ज्ञानों का भी ज्ञान अर्थात ज्ञानस्वरूप कहा गया है । वही ज्ञानस्वरूप ज्ञेयतत्त्व आत्मा-अनात्मा अथवा प्रकृति-पुरुष के ज्ञान से जानने योग्य सबकी बुद्धि रूप गुफा में स्थित है ॥१७॥
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥१३/१८॥
इस प्रकार श्लोक चार एवं पांच में विकारों सहित चौबीस संक्षिप्त क्षेत्र, ‘अमानित्व’ से लेकर ‘तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्’ श्लोक सात से ग्यारह तक स्वरूप स्थिति में सहायक साधन को ज्ञान नाम से, अनादिमत्परं ब्रह्म श्लोक बारह से लेकर ‘हृदि सर्वस्य विष्ठितम्’ श्लोक सत्रह तक ज्ञेयतत्त्व का उसके प्रभाव सहित संक्षेप में कहा गया है । मेरा भक्त इन तीनो को जानकर उनका अनुसरण करके मेरे भाव को अर्थात मुझसे अभिन्नता प्राप्त कर लेता है ॥१८॥
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥१३/१९॥
अब पुनः क्षेत्र के विकारों का वर्णन करते हुए वह प्रत्यगात्मा किस प्रकार जीव भाव को प्राप्त हुआ और उसका क्या प्रभाव है यह बताने के लिए ‘यतश्च यत्’ १३/३ के उत्तर सहित वर्णन करते हैं—
प्रकृति और पुरुष दोनो ही अनादि हैं । इसमें जितने भी परिवर्तनशील गुण हैं और विकार हैं सभी प्रकृति से उत्पन्न हुये जानना चाहिए ॥१९॥
कार्यकरण कर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥१३/२०॥
कार्य यानी स्थूल शरीर, करण यानी चौदह इन्द्रियां, और कर्तापन का हेतु (उत्पत्ति का साधन) प्रकृति को कहते हैं । संपूर्ण सुखों एवं दुःखों के भोगने में पुरुष निमित्त कहा गया है ॥२०॥
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् ।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥१३/२१॥
क्योंकि प्रकृति में स्थित हुआ पुरुष ही प्रकृति से उत्पन्न गुणों का भोग करता है। परिणामस्वरूप इन गुणों का संग ही सत् यानी देवादि योनियों असत् यानी कूकर शूकर, शरीसृप, तिर्यागादि योनियों में जन्म का कारण (निमित्त) बनता है ॥२१॥
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥१३/२२॥
इस शरीर में स्थित परम पुरुष ही स्व-स्वरूप होने से सबसे नजदीक से साक्षी भाव से देखने के कारण उपद्रष्टा, सत्-असत् कर्मों में अनमति देने के कारण अनुमन्ता, भरण-पोषण करने से भर्ता, स्वयं ही जीव रूप में भोग करने के कारण भोक्ता, न्यायपूर्वक शासकों पर भी शासन करने की महानता के कारण महेश्वर कार्य-करण संघात रूप आत्मा से अतीत होने के कारण परमात्मा नाम से औपाधिक एवं कार्य की दृष्टि से नाम रूपात्मक संज्ञा को धारण करता करता है ।
अर्थात नाम रूप की उपाधि भेद से जीव से लेकर परमात्मा तक स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीर धारण करके जीव संज्ञक प्रकृति से परे स्वसंवेद्य प्रत्यगात्मा ही है ॥२२॥
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥१३/२३॥
जो इस प्रकार प्रकृति और पुरुष को गुणों सहित जानता है अर्थात जहां तक नाम और रूप की उपाधि है, जहां तक कर्ता और क्रिया है, जहां तक अहं वृत्ति है वह सब प्रकृति है और जो इससे भिन्न मुक्त स्वरूप है वह पुरुष है ऐसा जो जानता है वह हमेशा सभी प्रकार के प्राप्त शुभाशुभ कर्तव्य कर्म को करता हुआ भी पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता ॥२३॥
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥१३/२४॥
कोई ध्यान के द्वारा, कोई ज्ञानयोग के द्वारा कोई समत्व बुद्धि पूर्वक निष्काम कर्म द्वारा स्वयं से स्वयं (प्रत्यगात्मा) को स्वयं में देखता है ॥२४॥
अन्ये त्वेवमजान्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥१३/२५॥
किन्तु जो उपरोक्त साधन नहीं जानते हैं वे भी ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों से आत्मा-परमात्मा का विवेचन सुनकर उसके अनुसार एकनिष्ठ आरूढ होकर, वे श्रुति परायण भी मृत्यु को अत्यन्त पार कर जाते हैं अर्थात एकात्मता को प्राप्त होकर मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं ॥२५॥
यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥१३/२६॥
जो कुछ भी स्थावर जंगम प्राणी उत्पन्न होते हैं हे भरत वंश में श्रेष्ठ ! उन सभी को क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न हुआ जान ॥२६॥
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥१३/२७॥
संपूर्ण प्राणियों में तीनों शरीरों से आतीत तीनो शरीरों का स्वामी एक ही आत्मा समान रूप से स्थित है, जो शरीर के नाश होने पर भी एक अविनाशी आत्मा को देखता है वही देखता है अर्थात स्वरूप से जानता है ॥२७॥
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥१३/२८॥
जो सर्वत्र समान रूप से स्थित एक ही प्रत्यगात्मा को जानता है, जो स्वयं ही विषयों में फंसकर अपनी बुद्धि का नाश नहीं करता वही परम प्रकृति से आतीत आत्मस्वरूप को प्राप्त करता है ॥२९॥
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥१३/२९॥
जो संपूर्ण कर्मों को प्रकृति में ही क्रियमाण तथा आत्मा को अकर्ता देखता है वास्तव में वही देखता है अर्थात आत्मा के स्वरूप को वही जानता है ॥२९॥
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥१३/३०॥
जिस समय भिन्न-भिन्न सत्ता अर्थात स्वभावों वाले प्राणियों में एक ही परम सत्ता को देखता है तथा उसी से जगत का विस्तार देखता है उसी समय ब्रह्म रूपता को प्राप्त कर लेता है ॥३०॥
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्यः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥१३/३१॥
अविनाशी आत्मा अनादि अर्थात अजन्मा होने से से निर्गुण, निर्गुण होने से हे कौन्तेय ! शरीर में स्थित होता हुआ भी न कुछ करता है न लिप्त होता है ॥३१॥
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥१३/३२॥
जैसे सूक्ष्म होने से व्यापक आकाश न कुछ करता है न लिप्त होता है, वैसे ही सभी शरीरों में स्थित आत्मा न कुछ करता है, न क्रियाओं के फलस्वरूप जन्म-मृत्यु के बंधन में बंधता है ॥३२॥
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥१३/३३॥
जैसे इन संपूर्ण लोकों को एक ही सूर्य प्रकाशित करता है, वैसे ही एक ही क्षेत्रज्ञ (आत्मा) संपूर्ण इदंता कहे जाने वाले क्षेत्र को प्रकाशित करता है ॥३२॥
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥१३/३४॥
इस प्रकार क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, प्रकृति-पुरुष, अनात्मा-आत्मा के भेद को ज्ञाननेत्रों अर्थात आत्मदृष्टि से जानता है वही प्राणी प्रकृति से मुक्त होकर मोक्ष परमगति अर्थात मोक्ष को प्राप्त करता है ॥३४॥
॥ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥
हरिः ॐतत्सत् ! हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!
🌹श्रीकृष्णार्पणमस्तु🌹
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