गीतावलोकन अध्याय ३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीमद्भगवद्गीता
अथ तृतीयोऽध्यायः
अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्मणि मां नियोजयसि केशव ॥३/१॥
श्रीभगवान ने पिछले अध्याय में स्पष्ट कह दिया था कि पहली बात कर्म का स्वरूप से त्यागकर सांख्ययोग का उत्कृष्ट अधिकारी आत्मानुसंधान करे । तथापि जो स्वरूपतः कर्म का त्याग नहीं कर सकते हैं वे विवेक पूर्वक समत्वयोग का आश्रय लेकर कर्म करे जिसके फलस्वरूप ज्ञानयोग में स्थिति का वर्णन करते हुए आत्मभाव में स्थित होना ही ब्राह्मी स्थिति बताया । यहां अर्जुन को थोड़ा सा भ्रम हो गया अतः उसके समाधान के लिए पूछता है—
जब कर्म का त्याग ही कर्म की अपेक्षा श्रेष्ठ है तो फिर हे इन्द्रियों के स्वामी अर्थात अन्तर्यामी आप जानते हो कि मैं संन्यास का इच्छुक हूं तो भी मुझे घोर कर्म में क्यों लगाते हो ?॥१॥
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽमाप्नुयाम् ॥३/२॥
आपके मिले हुए से वाक्य बुद्धि को मोहित सा कर रहे हैं इस लिए जिस साधन से मेरा मोक्षमार्ग प्रशस्त हो वह एक साधन कहो ॥२॥
श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥३/३॥
श्रीभगवान कहते हैं— इस संसार में दो प्रकार की निष्ठाएं मेरे द्वारा पूर्वकाल में (अध्याय ४ में बताया जायेगा) कही गई जो प्रकृति-पुरुष का विवेचन करने वाले के लिए ज्ञानयोग यानी आत्मा-अनात्मा के विवेक पूर्वक स्वरूप से कर्म (अनात्म पदार्थ) का त्याग करके आत्मभाव में होना बताया गया है और समत्वयोग का अनुष्ठान करने वाले योगियों के लिए कर्मयोग कहा गया है ॥३॥
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च संन्यनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥३/४॥
मुख्य बात यह भी है कि बिना कर्म का आरंभ किए कर्म का स्वरूप से त्याग करके नैष्कर्म्य (स्वरूप से कर्म का त्याग) भी प्राप्त किया जा सकता है और न ही बाह्य कर्मों के त्याग से चित्त की शुद्धि या स्वरूप का संशय-विपर्यय रहित निश्चय ही किया जा सकता है ॥४॥
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥३/५॥
कारण कि कोई भी एक क्षण बिना कर्म किये नहीं जाता, क्योंकि कार्य तो प्रकृति का गुण है अतः प्रकृति के परवश हुआ बलात् कर्म करेगा ही ॥५॥
कर्मेन्द्रियिणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मित्थ्याचारः स उच्यते ॥३/६॥
माना कि बलात् कर्मेन्द्रियों को कर्म करने से रोक भी दिया जाये तो मन से इन्द्रियों के विषयों की रमणीयता का स्मरण करता हुआ उनमें विचरण करे तो वह मूढ अर्थात विवेकहीन मिथ्याचारी है (क्योंकि वे विषय मन को आधीन करके उसे पुनः वह सब करने पर विवश कर ही देंगी । २/६७) ॥६॥
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥३/७॥
हे मुमुक्षु ! जो मन के सहित इन्द्रियों को अपने आधीन करके अनासक्त भाव से केवल कर्मेन्द्रियों द्वारा विहित कर्मों का आरंभ करता है वही विवेकशील श्रेष्ठ कर्ता है ॥७॥
नियतं कुरु कर्मत्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ॥३/८॥
इसलिए शास्त्र विधि द्वारा विहित कर्म तुझे करना करना चाहिए, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना ही श्रेष्ठ है, कारण कि बिना कर्म के शरीर यात्रा भी नहीं होती ऐसा लोक प्रसिद्धि भी है ।
भाव यह है कि जब लौकिक दृष्टि से भी बिना कर्म के शरीर संचालन भी नहीं हो सकता है तो मोक्ष जैसा कल्याण पथ बिना कर्म के कैसे प्राप्त होगा । अतः ऐसे अविवेकपूर्ण अकर्मण्यता से कर्मण्यता ही श्रेष्ठ है ॥८॥
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्त सङ्गः समाचार ॥३/९॥
लेकिन इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि ये विहित कर्म भी मात्र परमात्मा के निमित्त ही होना चाहिए अन्यथा इस लोक में ही कर्मबंधन से बांधने वाले होते हैं अर्थात नाना प्रकार की योनि में जन्म-मृत्यु का हेतु बनते हैं । अतः इन शास्त्रीय विहित कर्मों को मात्र परमेश्वर के निमित्त मोक्षार्थी अनासक्त भाव भली-भांति अर्थात विधि पूर्वक अनुष्ठान करे ॥९॥
कर्म का विनियोग यज्ञ के लिए करके यज्ञ को परस्पर उन्नति का साधन बताते हुए उसके अनुष्ठान का लाभ और यज्ञ के अधिष्ठान का वर्णन—
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्ट कामधुक् ॥३/१०॥
प्रजापति ब्रह्मा ने कर्त्तव्य कर्म के साथ प्रजा को उत्पन्न करके करके कहा इस कर्तव्य कर्म के द्वारा परस्पर एक-दूसरे की वृद्धि करो । एवं यह कर्तव्य कर्म तुम्हारे लिए काम होवे अर्थात इच्छित वस्तुओं की पूर्ति करने वाला हो ॥१०॥
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥३/११॥
इस कर्तव्य के द्वारा देवताओं अर्थात पूज्य ज्येष्ठ, श्रेष्ठजनों को उन्नत करो और वे देवता लोग अपने कर्तव्य द्वारा आपकी उन्नति करें इस प्रकार परस्पर उन्नति को प्राप्त होओ ॥१२॥
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ॥३/१२॥
यहां पर बताया जो कुछ है सब देवताओं (अर्थात अपने बुजुर्गो और समाज) का ही दिया हुआ है । उन्हीं के दिये हुए से उनकी सेवा न करके स्वयं ही उपभोग करने वाला चोर है ॥१२॥
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥३/१३॥
कर्तव्यत्वेन परोपकार करते हुए शेष अन्न-धन का उपभोग करने वाला सभी पापों से मुक्त हो जाता है जबकि स्वयं के लिए उपभोग करने वाला पाप ही खाता है ॥१३॥
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥३/१४॥
अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं, अन्न वर्षा से, वर्षा यज्ञ से, यज्ञ कर्तव्य पालन से उपन्न हुआ ॥१४॥
कर्मब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षर समुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥३/१५॥
कर्तव्यबोध वेदों और वेदों की उत्पत्ति अविनाशी ब्रह्म से हुई है । इसलिए वेद नित्य यज्ञ अर्थात परमेश्वर में प्रतिष्ठित हैं ॥१५॥
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥३/१६॥
इस प्रकार सृष्टि चक्र का जो अनुवर्तन नहीं करता वह पापात्मा इन्द्रिराम व्यर्थ ही जीता है ॥१६॥
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥३/१७॥
यह सृष्टि चक्र का अनुवर्तन उनके लिए है जो कर्म का स्वरूप से त्याग न करके इन्द्रियाराम हैं किन्तु जो आत्माराम हैं अर्थात जिनकी निरंतर सीमित अहंता का अतिक्रमण करके व्यापक अहंता में अर्थात ‘मैं’ के अर्थ आत्मा में ही रति है, जो मनुष्य आत्मतृप्त है, आत्मा में ही संतुष्ट है उसके लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं बचता है । अर्थात उसके सभी श्रौत-स्मार्त कर्म पूर्ण हो चुके हैं क्योंकि सभी कर्मों का फल है आत्मतृप्ति, आत्मस्वरूप में स्थिति ॥१७॥
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चदर्थ व्यापाश्रयः ॥३/१८ ॥
उसके लिए न तो कुछ करना शेष रहता है और न तो कुछ न करना योग्य होता है ऐसा कर्म से सिद्ध नैष्कर्म्य को प्राप्त किसी भी कारण से ईश्वर आदि का कोई आश्रय आश्रय भी नहीं लेता ।
आश्रय उसे आवश्यक होता है जिसे कुछ पाना शेष हो, स्वार्थ हो, किसी अनात्म पदार्थ की ‘स्व’ से भिन्न आवश्यकता हो । वह पूर्ण काम है अतः वह किसी ईश्वर आदि के भी आश्रित नहीं होता है क्योंकि ईश्वर भी उससे भिन्न नहीं है बल्कि दोनो अभिन्न हैं यह भाव है ॥१८॥
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥३/१९॥
इसलिए निरंतर अनासक्त होकर कर्तव्य कर्म करता हुआ परमात्मा को मनुष्य प्राप्त कर लेता है ॥१९॥
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥३/२०॥
कर्म से ही जनकादि भी भली-भांति आत्मसिद्धि को प्राप्त किया था, यह देखते हुए लोकसंग्रह के लिए भी कर्म करना चाहिए ॥२०॥
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं करुते लोकस्तदनुवर्तते ॥३/२१॥
जैसा जैसा श्रेष्ठजन आचरण करते हैं दूसरे लोग भी वैसा ही प्रमाण मानकर करते हैं ॥२१॥
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषुलोकेषु किञ्चन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥३/२२॥
कृष्ण कहते हैं मुझ सर्वात्मा के लिए कोई न तो कर्तव्य शेष है और न ही संसार में कुछ प्राप्त करना शेष है तो भी कर्म करता हूं ॥२२॥
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
ममवर्तमानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥३/२३॥
यदि मैं सावधान होकर कर्म न करूं तो सभी मनुष्य मुझे प्रमाण मानकर वैसा ही करेंगे ॥२३॥
उत्सीदेयुरिमेलोका न कुर्यां कर्म चेदहम् ।
सङ्करस्य च कर्ता च स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥३/२४॥
इस प्रकार मनमानी आचरण करके इस संसार की मर्यादा का उच्छेदन करके प्रजा में वर्णसंकर उत्पन्न करने वाला होऊंगा । यहां पर भगवान अर्जुन की वर्णसंकर वाली चिन्ता का समाधान करते हैं कि कर्तव्य पालन न करना ही वर्णसंकर यानी असामाजिक आततायियों की वृद्धि का श्रोत है न कि कर्तव्य से प्राप्त युद्ध ॥२४॥
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ॥३/२५॥
लोक मर्यादा को बनाये रखने के लिए संसारी विषयी पुरुषों की भांति आसक्त हुआ सा अन्दर से अनासक्त होकर कर्म करे ॥२५॥
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥३/२६॥
अज्ञानियों की शास्त्रीय कर्म में प्रवृत्त बुद्धि में भेद न पैदा करते हुए स्वयं भी भली-भांति करता हुआ और दूसरों से भी करवावे ॥२६॥
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारः विमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥३/२७॥
प्रकृति में ही गुणों के द्वारा सभी कर्म क्रियमाण हो रहे हैं और मोहित हुआ अविवेकी लोग मनुष्य ‘मैं करता हूं’ ऐसा मानता है, अतः वह जन्म-मृत्यु रूप बंधन को प्राप्त करता है । इसका अर्थ यह हुआ कि वह कर्तापन की अहं वृत्ति का नाश कर दे तो वह निर्विकार परब्रह्म ही है ॥३/२७॥
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥३/२८॥
किन्तु पुरुषार्थी प्रकृति के गुण-कर्म विभाग को तत्त्वतः जानकर गुण ही गुणों में व्यवहार कर रहे हैं ऐसा मानने के कारण उनमें आसक्त नहीं होता अर्थात नैष्कर्म्य को प्राप्त होकर आत्मभाव (मोक्ष) को प्राप्त करता है ॥२८॥
प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ॥३/२९॥
मूढ अर्थात विवेकहीन प्रकृति में रमणीय बुद्धि के कारण उसके गुण-कर्म से मोहित होता है । उन गुण-कर्म को स्वरूपतः न जानने वाले अज्ञानियों को कर्म के स्वरूप को पूर्णतः जानने वाला विचालित न करे ॥२९॥
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निममो भूत्वा युद्ध्यस्व विगतज्वरः ॥३/३०॥
संपूर्ण कर्मों को आत्मा-अनात्मा का विवेक करने वाली बुद्धि के द्वारा आत्मा में त्याग कर अर्थात कामना रहित होकर उनके फलों की आशा का त्याग करके संपूर्ण अनात्म पदार्थ से निर्मम होकर परमपुरुषार्थ की प्राप्ति के लिए कमर कस ले ॥३०॥
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥३/३१॥
परमात्मा कृष्ण के इस मत का जो भी मनुष्य श्रद्धा पूर्वक दोष दृष्टि से रहित होकर निरंतर अनुष्ठान करेगा वह संपूर्ण शुभ-अशुभ कर्मों अर्थात उसके जन्म-मृत्यु रूप फल से मुक्त हो जायेगा ॥३१॥
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् ।
सर्वज्ञानविमूढ़ांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥३/३२॥
भगवान के मत में दोष देखता हुआ जो उसका अनुष्ठान नहीं करता है उसे संपूर्ण ज्ञान अर्थात अर्थात काम्यकर्म का प्रतिपादन करने वाली ऋचाओं से मोहित होने के कारण नष्ट बुद्धि वाला जानना चाहिए ॥३२॥
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यसि ॥३/३३॥
ज्ञानी भी अपने स्वभाव के अनुसार व्यवहार करता है । अर्थात जब ज्ञानी भी अपने स्वाभाव के अनुसार व्यवहार करता है तो अज्ञानी भी अपने स्वभाव के अनुसार व्यवहार करता है, क्योंकि सभी प्राणी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार व्यवहार करते हैं, उन पर निग्रह क्या करेगा ? अर्थात प्रकृति पर अनुशासन नहीं हो सकता है
स्वाभाव चार प्रकार का होता है जिसका वर्णन अध्याय अठारह में करूंगा ॥३३॥
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्नवशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥३/३४॥
क्योंकि इन्द्रियां अपने-अपने विषयों के राग-द्वेष से अनुशासित हैं अतः उन इन्द्रियों के वश में नहीं होना चाहिए । ये राग-द्वेष मुमुक्षु के परम शत्रु हैं ॥३४॥
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेेयः परधर्मो भयावहः ॥३/३५॥
सभी का भली-भांति आचारण में लाया गया अपना-अपना स्वाभाविक धर्म अर्थात कर्तव्य कर्म श्रेष्ठ है । अपने धर्म में मरना श्रेष्ठ है, दूसरे का धर्म भय देने वाला है ॥३५॥
अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादाव नियोजितः ॥३/३६॥
अर्जुन कहते हैं कि ठीक है इन्द्रियों को अपने आधीन रखकर राग-द्वेष रहित होकर अपना ही सर्वधर्म पालन करना चाहिए लेकिन हे कृपा की वर्षा करने वाले मनुष्य न चाहकर भी ऐसा लगता है कि कोई बलपूर्वक नियंत्रित करके सर्वधर्म से विरुद्ध पाप कर्म में लगा देता है । ऐसा किसके द्वारा द्वारा होता है ?॥३६॥
श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुण समुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥३/३७॥
श्रीभगवान कहते हैं पाप का मूल कारण है रजोगुण से उत्पन्न काम जिसकी पूर्ति न होने पर क्रोध उत्पन्न होने पर कभी पूर्ति न की जा सकने वाली कामपूर्ति के महानतम पाप करने वाला इस वैरी को जानना चाहिए अर्थात संपूर्ण अनर्थ की जड़ काम ही है ॥३७॥
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च ।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥३/३८॥
जैसे धुवां अग्नि को, धूल दर्पण को, जेर गर्भ को ढक लेती है वैसे ही यह काम निर्मल निर्विकार आत्मा को ढक लेता है ॥३८॥
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणः ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥३/३९॥
वैसे ही ज्ञानियों के नित्य वैरी इस काम के द्वारा आत्मा-अनात्मा के विवेक को ढक दिया जाता है । जैसे प्रचंड अग्नि में सूखे तिनकों की पूर्ति कठिन है वैसे ही कामनाओं की पूर्ती कठिन है अर्थात जैसे अग्नि को लकड़ी आदि न देने पर वह स्वतः बुझ जाती है वैसे ही कामनाओं की पूर्ति उनके अनुसार न करके अपने अनुसार अनुशासन पूर्वक चिन्तन न करने से ही उन्हें रोका जा सकता है ॥३९॥
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥३/४०॥
काम के निवास स्थान इन्द्रियां, मन और बुद्धि हैं, यह काम इन्द्रिय आदि का आश्रय लेकर आत्मा-अनात्मा के विवेक को ढक देता है जिससे मनुष्य मोहित हो जाता है अर्थात न करने योग्य भी विवेकहीन होकर कर बैठता है ॥४०॥
तस्मात्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥४१॥
इसलिए श्रेष्ठ पुरुष को चाहिए कि ज्ञान-विज्ञान का नाश करने वाले पाप की माता काम को अपने आधीन करने के लिए पहले इन्द्रियों पर नियमन करे ॥४१॥
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥३/४२॥
शरीर की प्रकाशक इन्द्रियां, इन्द्रियों का प्रकाशक मन, मन को प्रकाश देने वाली बुद्धि और बुद्धि को प्रकाश देने वाली आत्मा है । अर्थात काम नाश का उपाय यह है कि काम तो बुद्धि पर्यंत ही है आत्मा पर्यंत नहीं, अतः निष्क्रिय आत्मभाव में स्थित होकर काम का नाश करना चाहिए यह भाव है जिसे आगे स्पष्ट करते हैं ॥४२॥
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो काम रूपं दुरासदम् ॥३/४३॥
इस प्रकार विवेक पूर्वक आत्मा के स्वरूप को जानकर स्वयं ही अन्तःकरण को वश में करके परम पुरुषार्थ सिद्ध करने की इच्छा वाला दुर्जय काम रूप शत्रु को मार डाले ।
सरांश यह कि जब तक आत्म स्थिति नहीं हो जाती है तब तक काम का नाश अन्य किसी साधन से नहीं हो सकता । इसी को ‘नैनां प्राप्य विमुह्यति २/७२ कहा गया है ॥४३॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः ।।
हरिः ॐतत्सत् ! हरिः ॐतत्सत् !! हरिः ॐतत्सत् !!!
श्रीकृष्णार्पणमस्तु
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