गीतावलोकन अध्याय १८



   ॐ श्रीपरमात्मने नमः
       श्रीमद्भगवद्गीता
      अथाष्टादशोऽयायः
अर्जुन उवाच
सन्न्यासस्य महाबहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुतम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥१८/१॥
                 अर्जुन पूछते हैं— हे बड़ी बांहों वाले ! संन्यास अर्थात सर्वकर्म संन्यास के स्वरूप को जानने की इच्छा है तथा उसी हे अन्तर्यामी केशिनिसूदन ! कर्म करते हुए उसके फल के त्याग का स्वरूप भी जानना चाहता हूं ॥१॥

श्रीभगवानुवाच
काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः । 
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥१८/२॥
            श्रीभगवान कहते हैं— काम्य कर्मों के त्याग को तत्त्वदर्शी संन्यास कहते हैं, कर्म के रहस्य को जानने वाले सभी कर्मों के फल त्याग को त्याग कहते हैं ॥२॥

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥१८/३॥
               मनीषियों का एक पक्ष कर्म को दोष के समान त्याने को कहते हैं, दूसरा पक्ष यज्ञ दान तप रूप कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए ऐसा कहते हैं ॥१८/३॥

निश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ॥१८/४॥
             हे भरतवंश में श्रेष्ठ अर्जुन ! उसमें मेरा निश्चय सुनो, क्योंकि हे वीर पुरुष ! त्याग तीन प्रकार का कहा गया है ।
              यहां से आगे जो कुछ भी त्रिविध कहा जायेगा उसमें सात्त्विक ग्राह्य और राजस तामस का स्वरूप से त्याग ऐसा अपना निश्चय प्रकट करने के लिए ही भगवान त्रिविध कर्म की प्रस्तावना करते हैं ॥४॥

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् । 
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥१८/५॥
             यज्ञ दान तप इनका त्याग न करके उन्हें वरन् करना ही चाहिए क्योंकि यज्ञ दान तप मनुष्य को पवित्र करते हैं ।
              पवित्र करते हैं अर्थात चित्तशुद्धि करते हैं ॥५॥
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ॥१८/६॥
          पार्थ ! इन यज्ञादि कर्मों की सकाम एवं दोनो प्रकार की आसक्ति और उन कर्मों के फल का त्याग करके कर्तव्यत्वेन करना चाहिए ऐसा मेरा मत है ।
                यहां शैली भेद से कर्मण्येवाधिकारस्ते…..२/४७ की पुनरावृत्ति दिख रही है ॥६॥

              
नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ॥१८/७॥
           क्योंकि नियत कर्म का त्याग उचित नहीं है । मोह से किया गया त्याग राजसी कहा गया है ।
               इसमें अध्याय तीन के कर्म विवेचन की पुनरावृत्ति प्रतीत हो रही है ॥७॥

दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ॥१८/८॥
             जो कर्म में दुःख ही ऐसा सोचकर शारीरिक कष्ट के भय से त्याग करता है वह रासजी त्याग करने वाला त्याग का फल प्राप्त नहीं करता ॥९॥

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं कुरुतेऽर्जुन ।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ॥१८/९॥
             हे अर्जुन ! जो ‘कर्तव्यत्वेन करना ही चाहिए’ इस प्रकार अपना शास्त्र विहित स्वस्थानीय कर्म उसकी निष्कामता की भी आसक्ति का त्याग करके तथा उन कर्म के शुभाशुभ फल का भी त्याग करके करता है वह त्याग सात्त्विक है ऐसा मेरा (कृष्ण) का मत है ॥९॥

न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ॥१८/१०॥
             जो कुशल अर्थात निष्काम कर्म की सासक्ति नहीं रखता और अकुशल यानी सकाम कर्म से द्वेष नहीं करता वह प्रबल विवेक संपन्न संशय रहित त्यागी शुद्ध सत्त्व में प्रविष्ट है ।
              पूर्वार्द्ध में ‘सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो….’३/३५ एवं उत्तरार्ध में ‘नित्यसत्त्वसथो’ २/४५ की झलक दिखती है ॥१०॥
न हि ददेहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥१८/११॥
              क्योंकि जिसने भी शरीर धारण किया है वह स्वरूप से कर्मत्याग करने में समर्थ नहीं है, अतः जिसने कर्मफल का त्याग किया है वही त्यागी कहा गया है ।
               इसमें अध्याय तीन के पांचवें श्लोक का पूर्वार्द्ध में और उत्तरार्ध में अध्याय बारह के बारहवें श्लोक की झलक दिखती है ॥११॥

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधः कर्मणः फलम् ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित् ॥१८/१२॥
            क्योंकि कर्मी मनुष्य के कर्मफल त्याग न करने के कारण मरने के पश्चात मनुष्य को अशुभ, शुभ मिले-जुले शुभाशुभ ये तीन प्रकार का होता है, किन्तु स्वरूप से ही कर्म का त्याग करने वाले ज्ञानयोगी को कोई फल नहीं होता ॥१२॥

पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे ।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ॥१८/१३॥
           हे महाबाहो ! आगे कहे जाने वाले कर्मों का अन्त (नाश) वेदान्त (ज्ञान) में  करने वाले सभी कर्मों की सिद्धि के लिए पांच कर्म कहे गये उन्हें मुझसे सुन ।
            यहां पर अध्याय सात के अपरा एवं प्रकृति एवं पुरुष का समग्र रूप से मेरी विचेन पश्चात ‘ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्सनमध्यात्मं कर्म चाखिलम्’ ७/२९ जो कहा था वही सभी कर्मों की सिद्धि एवं शेष अपरा और परा प्रकृति का संक्षिप्त विवेचन किया जायेगा ॥१३॥

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् ।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ॥१८/१४॥
             अधिष्ठान तथा कर्ता एवं नाना भिन्न-भिन्न चौदह इन्द्रियां, भिन्न-भिन्न चेष्टाएं, तथा यहां पांचवां दैव यानी प्रारब्ध समझना चाहिए ।
             अधिष्ठान अर्थात शेष चारों को सत्ता देने वाला शुद्ध निर्विकार आत्मा, कर्ता अर्थात कर्म में अहं बुद्धि करने वाला— ‘कर्ताहमिति मन्यते’ ३/२७ । शेष स्पष्ट है ॥१४॥

शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः ।
न्यायं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ॥१८/१५॥
             कर्म क्यों करना ? उसके पांच हेतु— शरीर, वाणी, मन, के द्वारा जो कर्म का मनुष्य आरंभ होता अथवा न्याय या अन्याय यही उनक कर्मों के पांच कारण कहे गये हैं ॥१५॥

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ॥१८/१६॥
          वे उपरोक्त पांचों कारण होने पर भी बुद्धि कृतकृत्य अर्थात शुद्ध न होने के कारण जो अपने को ही कर्ता मानता है वह दुर्मति अर्थात दुष्ट बुद्धि वाला ठीक-ठीक नहीं जानता अर्थात आत्मा के निष्क्रिय स्वरूप को नहीं जानता ॥१६॥

यस्य नाहङ्कृतोभावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥१८/१७॥
              जिसे कृतकर्म में अहं बुद्धि नहीं होती और जिसकी बुद्धि निष्कामभाव और उसके फल में लिप्त नहीं होती होती वह तीनो लोकों को मार कर भी न किसी को मानता है और न उसके कर्मफल जन्म-मृत्यु से बंधता है ।
               यहां भाव यह है कि जब वह प्रकृति पुरुष के भेद को तत्त्वतः जानकर निष्क्रिय आत्म भाव में स्थित हो जायेगा तब अनात्म भाव का संकल्प भी स्वतः अपनी उत्पत्ति के कारण आत्मा में लीन हो जायेगा । 
           यह अनात्म पदार्थ के संकल्प का त्याग ही त्रिलोकी का संहार है जिसके बाद वह जन्म-मृत्यु रूप संसार बंधन को प्राप्त न होकर स्वयं मोक्ष रूप हो जाता है । अर्थात अनात्म पदार्थ का त्याग ही त्रिलोकी का नाश और आत्मभाव में स्थिति ही कर्म बंधन में न बंधना अर्थात मोक्ष है ॥१७॥
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधः कर्म चोदना ।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः ॥१८/१८॥
               ज्ञान ज्ञेय और उसे जानने वाला ये तीन कर्म के हेतु कहे गये हैं । करण अर्थात इन्द्रियां, कर्म यानी चेष्टा और चेष्टाओं को मूर्त रूप देने वाला कर्ता ये तीन प्रकार के कर्म के साधन हैं ॥१८॥

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः ।
प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छ्रुणु तान्यपि ॥१८/१९॥
             ज्ञान एवं कर्म तथा कर्ता भी तीन प्रकार के कहे गये हैं जिसे कापिल सांख्य दर्शन में भी कहा गया है उनको वेदान्त की दृष्टि से यथार्थ सुन— ॥१९॥

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥१८/२०॥
         भिन्न-भिन्न शरीरों में स्थित जिस वृत्ति से एक अखंड आत्मा को देखा जाता है उसे सात्त्विक ज्ञान जानो ॥२०॥

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् ।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ॥१८/२१॥
           किन्तु जिस वृत्ति से संपूर्ण प्राणियों में भिन्न-भिन्न सत्ता का ज्ञान होता है उस ज्ञान को राजसी जानो ॥२१॥

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् ।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् ।।१८/२२।।
              तथापि जिस वृत्ति से एक किसी शरीर या मूर्ति आदि में कारण भाव को न जानता हुआ कार्य रूप से बस वह परमेश्वर इतना ही है इस प्रकार अपूर्ण को पूर्ण के समान आसक्ति के कारण जानता है वह ज्ञान तामस कहा गया है ॥२२॥

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विक उच्यते ॥१८/२३॥
            जो कर्म फल की इच्छा न रखते हुए आसक्ति रहित बिना राग-द्वेष के कर्तव्यत्वेन किया जाता है उस कर्म को सात्त्विक कहते हैं ॥२३॥

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः ।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ॥१८/२४॥
              किन्तु जो कामनाओं की पूर्ति के लिए अथवा अहंकार पूर्वक उसमें भी बहुत परिश्रम से किया जाता है वह राजस कर्म कहा गया है ॥२४॥

अनुबंधं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥१८/२५॥
              अपने पौरुष अर्थात अपनी क्षमता, कर्म का परिणाम एवं हिंसा को न देखते हुए अर्थात उनकी उपेक्षा करके किये जाते हैं उन कर्मों को तामस कहते हैं ॥२५॥

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निविकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८/२६॥
              आसक्ति से रहित, कर्तापन को तिलांजलि देने वाला, कर्तव्य पालन में धैर्य और उत्साह से परिपूर्ण सफलता और असफलता से होने वाले मानसिक विकारों से रहित को सात्त्विक कर्ता कहते हैं ॥२६॥

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः ।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ॥१८/२७॥
             आसक्ति पूर्ण और कर्मफल प्राप्ति का लालची, हिंसात्मक, शरीर और मन से अपवित्र अर्थात शरीर हिंसा आदि पूर्ण कर्म और मन में द्वेष या जलन युक्त, अनुकूल में अति प्रसन्न एवं प्रतिकूल में शोक युक्त कर्ता को राजसी कहा गया है ॥२७॥

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठोऽनैष्कृतिकोऽलसः ।
विषादी दीर्धसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ॥१८/२८॥
               विधि पूर्वक कार्म न करने वाला, छोटे बच्चों की तरह प्राकृत बुद्धि वाला अर्थात विवेकहीन, गुरुजनों आदि को न झुकने वाला उद्दंड, कृतघ्न आलसी, क्षण-क्षण में शोक करने वाला दीर्घसूत्री अर्थात आज के कार्य को कल पर छोड़ने वाला अथवा एक दिन का काम महीनों टालते हुए करना ऐसा कर्ता तामसी कहा गया है ॥२८॥

बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु ।
प्रोच्यमामशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय ॥१८/२९॥
           हे धनंजय ! बुद्धि धृति एवं गुण के भी तीन-तीन भेद सुनो जिन्हें अलग-अलग पूर्णतः कहूंगा ॥२९॥

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धं मोक्ष च या पार्थ बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥१८/३०॥
              हे पार्थ ! किस कार्य में प्रवृत्ति होनी चाहिए और किस कार्य से निवृत्ति तथा वास्तविक कार्य अकार्य अर्थात कर्तव्य अकर्तव्य क्या है ? कहां भय और कहां निर्भय होना चाहिए, तथा बंध और मोक्ष को जिससे जाना जाता है वह सात्त्विक बुद्धि है ॥३०॥

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चा कार्यमेव च ।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ॥१८/३१॥
          पार्थ ! जिसके द्वारा धर्म तथा अधर्म, कर्तव्य एवं अकर्तव्य का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होता वह बुद्धि राजसी है ॥३१॥

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता ।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥१८/३२॥
              पार्थ ! जो वृत्ति अज्ञान से ढकी होने के कारण अधर्म को धर्म मान लेती है (इसी प्रकार धर्म को अधर्म मान लेती है), सभी विषयों में सर्वथा विपरीत जानती है वह बुद्धि तामसी है ॥३२॥

धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः ।
योगेव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥१८/३३॥
            पार्थ ! जिस धैर्य से मन प्राण एवं इन्द्रियों को नियंत्रित करके समत्त्वयोग के द्वारा व्याभिचार रहित निर्विकार  आत्मस्वरूप में स्थित होता है वह धारण सात्त्विक है ॥३३॥

यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन ।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ॥१८/३४॥
            अर्जुन ! जिसके द्वारा अत्यंत आसक्ति पूर्वक फल की इच्छा करते हुए धर्म, अर्थात और काम को धारण किया जाता हे अर्जुन ! वह धृति यानी धारणा राजसी है ॥३४॥

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च ।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ॥१८/३५॥
          पार्थ ! जिसके द्वारा स्वप्न अर्थात अधिक निद्रा, भय, शोक, विषाद तथा घमंड का भी त्याग नहीं करता वह वह दुष्ट बुद्धि वाली तामसी धारणा है ॥३५॥

सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु में भरतर्षभ ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ॥१८/३६॥
           हे भरतश्रेष्ठ ! अब सुख भी तीन प्रकार का मुझसे सुन जिसका निरंतर अभ्यास करने वाला दुःखों के नाश को प्राप्त होता है अर्थात नित्य आनन्दस्वरूप हो जाता है ॥३६॥

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥१८/३७॥
            जो पहले जो पहले क्रियाकाल में विष के समान और परिणाम में अमृत के समान अपनी आत्मा को प्रसन्न करने वाली बुद्धि से उत्पन्न होता है उस सुख को सात्त्विक कहा गया है ॥३७॥

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥१८/३८॥
             विषयों के संयोग से जो पहले अमृत के समान, परिणाम में विष के समान हो उसे राजसी सुख समझना चाहिए ॥३८॥

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः ।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ॥१८/३९॥
               जो क्रियाकाल में और परिणाम में भी अज्ञान की वृद्धि करने वाला, निद्रा, आलस्य, प्रमाद को बढ़ाने वाला है उसे तामसी सुख कहा गया है ॥३९॥

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ॥१८/४०॥
              पृथ्वी, अन्तरिक्ष अथवा चाहे वह देवलोक ही क्यों न हो, अथवा उनसे भी भिन्न हो, उनमें कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है जो प्रकृति के इन तीनो गुणों से युक्त न हो ॥४०॥

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ॥१८/४१॥
              हे परंतप ! चारों वर्ण स्भाविक प्रकृति के गुणों से उत्पन्न कर्मों के आधार पर विभाक्त किये गये हैं ॥४१॥

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥१८/४२॥
              मन का शान्त होना, इन्द्रियों को नियंत्रित रखना, तीनो प्रकार का तप, बाहर भीतर की पवित्रता, क्षमा, सरलता, आत्मा-अनात्मा का ज्ञान, विज्ञान अर्थात ब्रह्म के समग्र रूप को जानकर ब्रह्मभाव में स्थित अर्थात ब्रह्मनिष्ठ, (सगुण) ईश्वर के प्रति आस्तिक्य भाव ये नौ गुण ब्राह्मण के स्वाभाविक हैं अर्थात इन नौ गुणों वाला ही ब्राह्मण है ॥४२॥

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजं ॥१८/४३॥
                वीरता, तेज, धैर्य, चतुराई, युद्ध में पीठ न दिखाना, दान देना, शासन करना ये सात गुणों वाला क्षत्रिय है ॥४३॥

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥१८/४४॥
          खेती करना, गौपालन करना, व्यापार करना ये तीन गुण वैश्य एवं सेवा कर्म शूद्र का स्वाभाविक कर्म है ॥४४॥

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥१८/४५॥
               अपने अपने स्वाभाविक कर्म करते हुए मनुष्य सम्यक् प्रकार चित्तशुद्धि को कर लेता है । स्वाभाविक कर्म से जिस प्रकार चित्तशुद्धि प्राप्त करता यानी होती है उसको सुन ॥४५॥

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥१८/४६॥ 
          जिस परमेश्वर से ये संपूर्ण लोक परिपूर्ण हैं अर्थात व्याप्त हैं, जिससे उत्पन्न होकर संपूर्ण प्राणी चेष्टा करते हैं उन्हीं अपनी सहज चेष्टाओं को परमेश्वर के निमित्त निष्काम भाव से मूर्त रूप देकर उनकी अर्चना करके मनुष्य आत्म सिद्धि को प्राप्त करता है ॥४६॥

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभाव नियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥१८/४७॥
             स्वाभाविक प्राप्त स्वधर्म अर्थात कर्तव्य कर्म का भली-भांति अनुष्ठान दूसरे के गुणवान धर्म से श्रेष्ठ है । स्वाभाव से ही निश्चित अर्थात कर्म निपुणता वाले कर्म में दोष को प्राप्त नहीं होता अर्थात दोष नहीं होता ॥४७॥

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ॥१८/४८॥
            सहज अर्थात स्वाभाविक कर्म दोषयुक्त होने पर भी त्याग न करे, क्योंकि सभी कर्मों के आरंभ करने में उसी प्रकार दोष होता है जैसे अग्नि में धुंवा होता है ।
           यहां पर सहज का अर्थ टीकाकारों और उनके अनुयायियों ने जन्म के बाद यज्ञोपवीत होने के पश्चात जो अग्निहोत्रादि कर्म निश्चय किये गये हैं उनको सहज कर्म माना है । यह अर्थ उनके और उनके अनुयायियों के अनुसार अवश्य ठीक होगा, किन्तु पूर्वापर का प्रसंग विचार करने पर यह सुनिश्चित होता है कि यह अर्थ युक्ति संगत नहीं है क्योंकि तीनो गुणों से त्रिलोकी की व्याप्ति १८/४० बताकर चारों वर्णों की उत्पत्ति स्वाभाविक गुणों से क्रियमाण कर्मों के द्वारा विभक्त किया जाना बताया हैं १८/४१। और यही— गुणकर्मविभागशः ४/१३ में भी बताया था । आगे कहते हैं— ‘स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः १८/४५ इसके पश्चात कहते हैं कि जिससे संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति और चेष्टाएं होती हैं उन अपनी चेष्टाओं के मूर्त रूप कर्मों से जिससे संपूर्ण जगत व्याप्त है उसकी उपासना करके मनुष्य चित्तशुद्धि को प्राप्त करता है । यहां पर दो बार ‘स्वे स्वे’ कहना चारों वर्ण एवं अन्य म्लेच्छादि के स्वाभाविक कर्मों का जीता जागता प्रमाण है, इसके विरुद्ध यहां अकेले सहज का अर्थ संस्कार संपन्न ब्राह्मण ही कैसे हो सकता है ? और यदि ब्राह्मण हो सकता है तो अर्जुन को यह कहना— ‘स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि’ २/३१ में किस स्वधर्म से कंपित न होने की बात भगवान अर्जुन को कह रहे हैं ?  अतः यहां सहज का अर्थ पूर्वापर का विरोध रखने के कारण मैं टीकाकारों से सहमत नहीं हूं ।
             अब यदि संस्कार को ही लिया जाये तो संस्कार चार प्रकार के होते हैं १- जन्म संस्कार— जिन पूर्वकृत कर्मों को लेकर वर्तमान में जन्म होता है । २- कुल संस्कार— जिस कुल में जन्म लेता है उस कुल के आचरणीय गुणों का जन्म से अभ्यास होने के कारण वे भी सहज यानी स्वाभिक हैं । ३- शास्त्र संस्कार— ब्राह्मण से लेकर अन्य कहीं भी उनके कुल के अनुसार आर्थिक, पारमार्थिक और सामाजिक संस्कार होते हैं वे भी स्वाभाविक हैं । ४- संगति— आपके आसपास का वातावरण कैसा है, आप किनकी और कैसी संगति कर रहे हैं ? ये चारों संस्कार मिलकर मनुष्य का जो स्वभाव निर्मित होता है उसे सहज या स्वाभाविक संस्कार कहते हैं । ऐसे स्वाभाविक संस्कारों से सहज भाव से होने वाले कर्म को सहज कहा गया है । जो चारों वर्णों एवं वर्णेतरों में भी प्राप्त हैं । यही ‘नरः’ १८/४५ एवं ‘मानवः’ १८/४६ कहने का तात्पर्य है अन्यथा पूर्णतः गीता के मूलभाव के विरुद्ध जातीय खींचातानी के अतिरिक्त टीकाकारों का अन्य कोई भाव नहीं हो सकता है ।
                 दुर्भाग्यवश हम जिनके पास पढ़ते थे उनसे हमने सहज का अर्थ संस्कारित ब्राह्मण ही कैसे होगा ? यह पूछने पर इतना अधिक बिखर गये कि मुझसे बोले कि हमने आपको पढ़ने के लिए नहीं बुलाया था खुद आये हो, उठो यहां से, जल्दी बाहर हो ।  टीकाकार ने जो लिखा है वही सही है । मानो क्रोध से भूमि और आकाश को एक कर देंगे । हम ऐसे टीकाकारों और उनके अनुयायियों से कदापि सहानुभूति नहीं रखते और ये समाज के लिए खतरा ही हैं ऐसी मेरी मान्यता है । ऐसे टीकाकारों और अनुयायियों की हठधर्मिता के कारण ही आज समाज में विद्रोह फैला है और आगे फैलने से कोई भी रोक नहीं सकता । अतः विवेकशील को ऐसी अंधभक्ति के स्थान पर विचार भक्ति करना आवश्यक है । प्रमाण भाष्य या टीकाएं नहीं मूल ग्रंथ हैं । जहां तक मूल के विरुद्ध न हो वहां तक भाष्य-टीका सब मान्य है और मूल के विरुद्ध होने पर सब अमान्म । अपना कल्याण करना मानव मात्र का जन्म सिद्ध अधिकार है और गीता का यही लक्ष्य है ॥४८॥ 

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगत स्पृहः ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति ॥१८/४९॥
          सर्वत्र अर्थात पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक पर्यंत भोगों की आसक्ति एवं उसके मन से भी स्पर्श से रहित हुआ अपनी चतुर्दश इन्द्रियों को जीतने वाला सर्वकर्म संन्यास अर्थात आत्मा-अनात्मा के ज्ञान पूर्वक निष्काम कर्म करता हुआ निष्क्रिय आत्मस्वरूप के निश्चय रूप श्रेष्ठ सिद्वि को प्राप्त करता है ॥४९॥

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे ।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥१८/५०॥
            निष्क्रिय आत्मनिश्चय के पश्चात जिस प्रकार से ब्रह्म को प्राप्त करता है हे कौन्तेय संक्षेप से उस ज्ञान की श्रेष्ठ निष्ठा को कहता हूं अर्थात सुनो— ॥५०॥

बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च ।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ॥१८/५१॥
             विशुद्ध बुद्धि से युक्त होकर अर्थात निष्काम कर्म से शुद्धि हुई बुद्धि आत्मभाव में स्थित होकर शरीर सहित संपूर्ण इन्द्रियों का का नियमन करके तथा उनके शब्दादि विषयों को बाहर ही त्यागकर अर्थात मन से भी स्मारण न करता हुआ ५/२७ एवं राग-द्वेष को छोड़कर— ॥५१॥

विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवक्कायमानसः ।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ॥१८/५२॥
            परिमित आहार लेता हुआ एकान्त निर्जन स्थान का सेवन करने वाला वाणी मन और शरीर अर्थात शरीर सहित पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां, मन एवं शरीर को जीतकर कर निरंतर ध्यानयोग (निदिध्यासन) वैराग्य का भली-भांति आश्रय लेकर— ॥५२॥

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् ।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥१८/५३॥
             सांसारिक किसी भी आश्रय के बल का घमंड और अप्राप्त की कामना क्रोध और सभी प्रकार के संग्रह का मन से त्यागकर, शान्त भाव में स्थित होकर ब्रह्मस्वरूपता का संकल्प करे । 
         कल्पते का अर्थ संकल्प भी होता है और समर्थ भी । प्रसंगानुसार मुझे संकल्प ही श्रेष्ठ अर्थ समझ में आया अतः वही अर्थ किया । तथापि यदि अर्थात समर्थ होना करते हैं तो ब्रह्म प्राप्ति में समर्थ होता है यह अर्थ हो जायेगा । दोनो में कोई विशेष अन्तर नहीं है तथापि ब्रह्म के साथ भूयाय संलग्न है जिसका है 'होने के लिए’ । ‘प्राप्ति’ अर्थ मेरी वृत्ति के अनुकूल नहीं है । तथापि जिसे जो समझना है वह समझ ले हमने दोनो भाव दे दिये हैं ॥५३॥

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ॥१८/५४॥
              ब्रह्म स्वरूप का संकल्प करते ही ब्राह्मी भाव को प्राप्त हुआ मुमुक्षु नित्यानंद को प्राप्त करके न कोई शोक करता है और न ही कुछ कामना करता है । वह संपूर्ण प्राणियों में आत्मरूप में स्थित मुझ आत्मस्वरूप में पराभक्ति अर्थात प्रकृति से अतीत आत्मनिष्ठा को प्राप्त कर लेता है ॥५४॥

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चाश्मि तत्त्वतः ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥१८/५५॥
            उस परा आत्मनिष्ठा से मैं जो हूं, जैसा हूं, जितना हूं तत्त्वतः जान लेता है । तत्त्वत: जानने के पश्चात तत्क्षण उस तत्त्व में प्रवेश कर जाता है अर्थात जीवब्रह्मात्मैक्य को प्राप्त हो जाता है ॥५५॥

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः ।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥१८/५६॥
               संपूर्ण कर्मों को मेरा भली-भांति आश्रय लेकर लेकर अर्थात मुझ सर्वेश्वर के लिए कर्म कर, मेरी प्रसन्नता से षड्विकारों से रहित मोक्षस्वरूप अविनाशी पद प्राप्त करेगा ।
                 यहां पर टीकाकारों की बातों पर ध्यान न देते हुए सगुण साकार की उपासना का ही साधन रूप वर्णन समझना चाहिए, साध्य तो अभिन्न आत्मा ही है, क्योंकि ‘मत्प्रसादात्’ का अर्थ— तेषामेनुकंपार्थं…….१०/११ समझना चाहिए, पूरा श्लोक और व्याख्या वहीं देखना चाहिए ॥५६॥

चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥१८/५७॥
               विवेकपूर्वक मन से संपूर्ण कर्मों का मुझमें त्याग कर दे और निरंतर बुद्धियोग अर्थात समत्वबुद्धि  का आश्रय लेकर मुझमें चित्तवाला मेरे परायण हो जा ।
                 अध्याय पांच में— ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति य: ५/१० में स्वामी रामानुजाचार्य के अतिरिक्त किसी भी द्वैत या अद्वैताचार्य ने हमने जितना देखा उसके अनुसार किसी ने भी ब्रह्म का अर्थ प्रकृति न करके परमात्मा ही किया है । हमें वह युक्ति संगत नहीं लगा अतः हमने भी ब्रह्म का अर्थ प्रकृति करते हुए संपूर्ण कर्मों का प्रकृति में ही उसके गुणों में रमणीय बुद्धि सहित आधान करना माना है, कारण कि इससे ठीक पहले दो श्लोकों में कहा गया है— नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् ५/८ अर्थात जो तत्त्ववित् निष्क्रिय आत्मभाव में स्थित हो चुका है वह यह मानता है कि मैं कुछ नहीं करता अर्थात वह अपने को निष्क्रिय सर्वात्मा मानता है । निष्क्रिय आत्मा में कोई भी कर्म संभव ही नहीं है । तथापि जो क्रियाएं दिख रही हैं उनका क्या होगा ? इसके लिए कहते हैं— पश्यन्श्रृण्वन्……..निमिषन्नपि ५/८-९ के अन्तर्गत जितनी भी क्रियाएं हैं उनके लिए कहा— इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारणयन् ५/९ अर्थात इन्द्रियां ही इन्द्रियों के विषयों का व्यवहार कर रही हैं ऐसी धारणा ज्ञान योगी की होना बताया था । इसे और अधिक समझने के लिए और पीछे चलते हैं— गुणा गुणेषु वर्तन्ते ३/२८ अर्थात गुणकर्म के विभाग को जानने वाला तत्त्ववेत्ता गुण ही गुणों में व्यवहार कर रहे हैं ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होता । अध्याय पांच का ‘धारयन्’ और यहां का ‘मत्वा’ एक ही बात का पोषक है । थोड़ा सा गुणों को और स्पष्ट करने के लिए थोड़ा और पहले देखते हैं— प्रकृतेः क्रियामाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ३/२७ अर्थात संपूर्ण गुणों में प्रकृति ही क्रियमाण है ‘मैं कर्ता हूं’ ऐसा मूर्ख मानते हैं । 
              इस प्रकार इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते के संरक्षण के लिए ब्रह्मण्याधाय कर्माणि ५/१० में ब्रह्म का अर्थ युक्ति संगत है । तथापि यहां पर जो कहा— चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य उसका तात्पर्य यह है कि वह उत्तम अधिकारी के ज्ञानयोग का विषय था और यह और यह मध्यम और अधम अधिकारी के लिए कर्मयोग का विषय है । वहां स्वरूप से कर्म का त्याग है और यहां कर्म का त्याग नहीं बल्कि कर्म के फल और कर्तापन की अहं वृत्ति का त्याग है जो ईश्वरार्पण कर्म से ही संभव है, एवं माया का भी अधिष्ठान परमात्मा है अतः परमात्मा की शरणागति स्वतः माया का निवारण वैसे ही कर देगी जैसे अधिष्ठान रस्सी के ज्ञान से आधेय सर्प का निवारण हो जाता है । इसी के लिए कहा बुद्धियोग का आश्रय लेकर मुझमें चित्तवाला होकर । यहां शंका हो सकती है कि पूर्व के निबंधों में आपने बुद्धियोग का अर्थ ज्ञानयोग किया था और अब समत्त्वयोग कैसे आ गया ? तो इसका समाधान यह होगा कि शास्त्र अनन्त भावों से संपन्न हैं जब जितना अधिकार होता है उतना ही समझ में आता है । अतः उस समय के विचार उस समय के अनुसार ठीक हैं और इस समय के अनुसार यही अर्थ ठीक है क्योंकि— बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि २/३९ यहां पर बुद्धि युक्त का अर्थ समत्त्वयोग में स्थित होकर कर्म करने से २/३८, २/४८-४९ इत्यादि ।
                  तात्पर्य यह कि विवेक पूर्वक मायापति के निमित्त कर्म करने से कर्तापन और उसके फल का अभाव हो जाने से चित्तशुद्धि होकर निष्क्रिय अकर्ता आत्मा का ज्ञान स्वतः हो जायेगा जिससे— ॥५७॥

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ॥१८/५८॥
              मुझसे अभिन्न चित्त होने से सभी शुभाशुभ दुर्गुणों को मेरी प्रसन्नता से १०/११ पार कर जायेगा । इतना जानकर भी यदि अहंकार वश नहीं मानेगा तो विनाश को प्राप्त हो जायेगा ।
              दुर्ग का अर्थ होता है किला जिसमें रहकर राजा सुरक्षित रहता है । यहां पर जीव ने जो प्रकृति के गुण कार्यों में रमणीय बुद्धि करके उनका दुर्लंघ्य  किला बना लिया है और उसमें अहं बुद्धि करके जो जीव रूप राजा बनकर बैठा है । उन्हीं प्रकृति संबंधित माने हुए दुर्गम विषय रूपी किला और अहं बुद्धि रूपी जीवत्व के दोष को परमेश्वर की प्रसन्नता से पार कर जायेगा अर्थात नित्य प्राप्त आत्मस्वरूप में स्थित हो जायेगा यह पूर्वार्द्ध का भाव है ।
                उत्तरार्ध को समझने के लिए एक काल्पनिक कहानी का आश्रय लेते हैं— एक सियार रात्रि के अंधेरे में भटकता हुआ गांव में चला गया और अंधेरे में न दिखने के कारण धोबी के कपड़े धुलने वाली नांद में गिर गया । उसमें नीला रंग मिला हुआ पानी था अतः वह नीले रंग का हो गया । बाद में उसने पानी में अपने प्रतिबंध को देखकर कुछ विचार कर स्वयं को जंगल का राजा घोषित कर दिया । शेर आदि मंत्री उसकी सेवा करते, किन्तु वह सियारों को अपने निकट नहीं आने देता था । एक बार सियारों ने गोष्ठी करके विचार किया कि इसका रंग भले हमसे भिन्न हो लेकिन दिखता तो मेरे जैसा ही है । अन्त में एक निर्णय के अनुसार रात्रि में सियार ‘हुआं हुआं’ करने लगे तो यह रंगा सियार भी हुआंने लगा और पोल खुल गई । अब सोचो शेर आदि मंत्रियों के बीच उसका क्या हुआ होगा ? 
           ठीक इसी प्रकार भगवान कहते हैं कि तुझे वैराग्य तो है नहीं मोह वश युद्ध से हट रहा है जबकि युद्ध तो निश्चित हो ही चुका है और तू युद्ध करना चाहता नहीं है किन्तु जिस समय महाघमासान संग्रम छिड़ जायेगा युधिष्ठिर, अभिमन्यु आदि संकट में घिर जायेंगे तो तू परवश होकर युद्ध करने ही लगेगा, तो उसके बाद की क्या स्थिति होगी कहना कठिन है, यानी फिर तो विनाश निश्चित है । यहां मुमुक्षु का योग से संसारिक मोह के कारण पलायन ही पतन समझना चाहिए फिर कूकर शूकर आदि योनियां । यही विनाश है ॥५८॥

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥१८/५९॥
             अतः जो तू अहंकारवश ऐसा मानता है कि युद्ध नहीं करूंगा तो तेरी चंचल बुद्धि का मिथ्या व्यवसाय है । तेरी प्रकृति अर्थात क्षत्रिय आदि स्वभाव ही तुझे नियंत्रित करेगी । अर्थात तेरा स्वभाव ही तेरे प्राकृत कर्म में लगा देगी ॥६०॥

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा ।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ॥१८/६०॥
             कौन्तेय ! (क्षत्रिय आदि) स्वाभाव से उत्पन्न अपने (अपने) कर्म में बंधा होने के कारण मोहवश न चाहकर भी परवश होकर उस (स्वभावज) कर्म को करेगा ॥६०॥ 

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥१८/६१॥
              ईश्वर संपूर्ण प्राणियों के हृदय में बैठकर संपूर्ण प्राणियों के शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ होकर भ्रमित कर रहा है ।
             हृदय देश अर्थात बुद्धि को केन्द्र बनाकर ईश्वर अर्थात संपूर्ण प्राणियों में आत्म रूप से स्थित निर्विकार आत्मा में पांच भौतिक स्थूल शरीर में अहं का स्फुरण होना अर्थात ‘यह शरीर मैं ही हूं’ इस भाव की उत्पत्ति ही शरीर रूप यंत्र पर आरूढ़ होना है । नाना प्रकार के विषय रूप माया द्वारा रात दिन विचरण करते हुए कभी विश्राम को प्राप्त न होना ही भ्रमण करना है ॥६१॥

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥१८/६२॥
             हे भारत ! उसी परमसत्ता की शरण में सब प्रकार से उसी की शरण में जा उसकी प्रसन्नता से अपरिवर्तनीय षड्विकारों से रहित परम शान्ति को प्राप्त करेगा । 
          अर्थात अनात्म पदार्थ का त्याग करके एक मात्र आत्मसत्ता को ही सात्त्विक, राजस, तामस गुणों का सत्ता देने वाला किन्तु उनसे भिन्न आत्म सत्ता में स्थित होकर परम शान्त शाश्वत स्थान अर्थात ब्रह्म से अभिन्न परम सत्ता को प्राप्त कर लेगा ॥६२॥

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया ।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ॥६३॥
             इस प्रकार तुम्हारी प्रियता के कारण न त्वेवाहं जातु नाशं २/१२ से लेकर स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् १८/६२ तक प्रवृत्ति एवं निवृत्ति मार्ग संबंधित ज्ञान सूक्ष्मता से पूर्णतः कह दिया । अब तुम दोनो मार्गों का भली-भांति विचार करके अपना अधिकार निश्चित करो कि तुम्हारा अधिकार क्या है ? उसके अनुसार जैसा उचित समझो और जो इच्छा हो वह करो ॥६३॥

सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥१८/६४॥
             सभी गोपनीय रहस्यों का गोपनीय मेरा श्रेष्ठ वचन सुनो— तुम मेरे प्रिय हो तुम्हारी मुझमें दृढ निष्ठा है इसलिए तुम्हारे हित के लिए कहता हूं ॥६४॥

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥१८/६५॥
              मुझमें मन वाला होओ, मेरा भक्त होओ, मेरा यजन कर, मुझे ही नमस्कार कर तो मैं तुझसे सत्य कहता हूं कि तू मुझको ही प्राप्त होगा यह मैं तुझसे अत्यंत प्रियता के कारण कहता हूं ।
               पंच महायज्ञों में जिनका विधान किया गया है उन माता-पिता आदि गुरुजनों, ऋषियों, आचार्यों, अतिथियों, एवं कुत्ता, कौआ गाय आदि को भी मेरा आत्मरूप जानकर उन्हें भी नमस्कर करो, उनको भोजन इत्यादि आवश्यक सामग्री देना रूप मेरा ही यजन करो— ‘पत्रं पुष्पं फलं तोयं’ ९/२६ एवं यत्करोषि…... ददासि यत् ९/२७ इत्यादि । मेरे मुझ आत्मस्वरूप में ही भक्ति वाला अर्थात निष्ठा वाला हो जा एवं अपने मन को अर्थात स्वयं को मुझसे अभिन्न जान कर आत्मभाव में ही स्थिर हो जा । तू मेरा अत्यंत प्रिया है इस लिए ये मेरी प्रतिज्ञा है कि तू मुझ सर्वात्मरूपता को ही प्राप्त होगा ॥६५॥

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥१८/६६॥
            सभी धर्मों का त्याग करके एकमात्र मेरी शरण में आ जा, मैं तेरे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा शोक मत कर ।
              सभी धर्म का अर्थ है सभी प्रकृति संबंधित अनात्म पदार्थ का त्याग करके ‘माम्’ का लक्षित सीमित अहंता का त्याग करके सबको और अपने को मुझमें अभिन्न देखता हुआ ४/३५ अवथा सबको और मुझको अपने में देखता हुआ एक मात्र आत्मभाव ‘अस्ति’ पद में स्थित हो जा । तुझे कृत कर्मों से होने वाले शुभाशुभ फलों के शोक की आवश्यकता नहीं है मैं उनसे मुक्त कर दूंगा ।
            यहां शंका हो सकती है कि जायेगा अपनी यानी आत्मा की शरण में और पाप से भगवान मुक्त करेंगे यह कैसे संभाव है ? क्योंकि निर्गुण ब्रह्म आत्मभाव में दूसरा कोई ‘स्व’ से भिन्न ईश्वर है नहीं तो पाप से मुक्त कर दूंगा ये बात समझ में नहीं आती है ? इसका उत्तर यह है कि अध्याय चौदह में भी अहं के अर्थ में ही ब्रह्म और मोक्ष सहित अन्य नित्यत्वादि को भी कहा गया है, अतः यहां भी माम् का अर्थ वही बनता है । भगवान कहते हैं ‘एक मात्र मेरी शरण में जा’ जबकि वे सामने उपस्थित हैं और कहते हैं जाने के लिए यह भी युक्ति संगत नहीं दिखता है किन्तु भगवान की वाणी युक्ति संगत न हो यह भी संभव नहीं है । अतः मेरी शरण का मेरे सर्वात्म भाव जिसे ‘संपूर्ण प्राणियों की आत्मा मैं हूं’ १०/२० एवं ‘सभी क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मैं हूं’ १३/२ इत्यादि कहा था वही यहां आत्म भाव में स्थित होना ही जाने का उपलक्षण है । इसी प्रकार ‘मोक्षयिष्यामि’ का उपलक्षण है मुक्त हो जायेगा । उदाहरण के लिए— जैसे कोई भयभीत किसी मार्ग पर जा रहा हो उसको आश्वासन देने के लिए कोई कहे कि तुम घबड़ाओ मत, तुम निश्चिन्त होकर जाओ ‘मैं हूं न’ ये मेरी जिम्मेदारी है कि तुम्हें कुछ नहीं होगा । जबकि आश्वासन देने वाला साथ नहीं जा रहा है और कहता है ‘मेरी जिम्मेदारी है’, इसी प्रकार भगवान कहते हैं जैसा मैने कहा वैसा ही करो तो तुम शुभाशुभ दोषों से स्वतः मुक्त हो जाओगे यह मेरी जिम्मेदारी है । इसमें शोक अर्थात संदेह करने की आवश्यकता नहीं है ॥६६॥

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥१८/६७॥
           यह गोपनीय रहस्य जो तुझसे कहा यह किसी अजितेंद्रिय को नहीं देना चाहिए— यहां तपस्काय से— शरीर, मन, वाणी तीनों प्रकार का साधन चतुष्टय द्वारा समझना चाहिए । जो आत्मनिष्ठ न हो अर्थात आत्मा-परमात्मा में भेद कराता हो उसको तो कदापि नहीं देना चाहिए । जो मेरी वाणी अर्थात मेरे द्वारा कही गई गीता सुनने की इच्छा न रखता हो उसे सुनाना नहीं चाहिए, जो मुझमें दोष देखता है— यह साढ़े तीन हाथ का कृष्ण सर्वात्मा ब्रह्म कैसे हो सकता है ? इस प्रकार के दोषान्वेषण करने वाले को भी कदापि नहीं देना चाहिए अर्थात गीता में भगवत्प्राप्ति के जितने साधन हैं सबको यहां निषेधमुख से कह दिया ॥७॥

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयम् ॥१८/६८॥
               जो यह परम पुरुषार्थ का साधन गोपनीय ज्ञान आत्मनिष्ठ अभेददर्शी मेरे भक्त को देने वाला मुझमें अभिन्न आत्मनिष्ठा करके संशय रहित हुआ मोक्षस्वरूप मुझ सर्वात्मा को ही प्राप्त होगा ॥६८॥

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रितरो भुवि ॥१८/६९॥
              उससे बढ़कर पृथ्वी पर कोई भी मनुष्य मेरा श्रेष्ठ कार्य करने वाला प्रियतर अर्थात अत्यंत श्रेष्ठ भक्त न अन्य है और न ही होगा ॥६९॥

अध्येष्यते य इमं धर्म्यं संवादमावयोः ।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ॥१८/७०॥
               जो इस ज्ञान को बढ़ाने वाले अर्थात अद्वैत आत्मनिष्ठा में स्थिर करने वाले संवाद को पढेगा ज्ञानयज्ञ के द्वारा मैं उसका प्रिय होने से अर्थात ज्ञानयज्ञ के द्वारा मैं पूजित होकर मैं उसके लिए और वह मेरे लिए अत्यंत प्रिय है 
                      प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मे प्रियः ७/१७ के अनुसार ‘तेनाहमिष्टः स्याम’ का अर्थ समझना चाहिए ॥७०॥

श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः ।
सोऽपि मुक्तः शुभांल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ॥१८/७१॥
            जो श्रद्धावान् मनुष्य बारंबार श्रवण  करेगा वह भी इस संसार से मुक्त होकर अर्थात शरीर त्याग कर पुण्यकर्मा के स्वर्गादि लोकों को प्राप्त करेगा ॥७१॥
               सारतत्त्व— श्लोक अड़सठ से लेकर यहां तक जो विवेचन किया उसका सार यह है कि जो पहले कहा था— मच्चित्तः मद्गतप्राणाः….१०/९ पूरा श्लोक और व्याख्य वहीं देखें- उसी को यहां पर वह कैसे उस प्रकार होगा ? उसका साधन फलश्रुति के रूप में बता दिया ॥६८-७१॥

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा । 
कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनस्टते धनञ्जय ॥१८/७२॥
         पार्थ ! क्या यह जो गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कहा है उसे ध्यान से सुना मनन करते हुए सुना ? धनंजय ! क्या तुम्हारा संन्यास और कर्म को लेकर उत्पन्न हुए अज्ञान से युद्ध को लेकर स्तब्धता अर्थात जड़ता नष्ट हुई ?॥७२॥

अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥१८/७३॥
               अर्जुन कहते हैं— मेरा युद्ध विषयक मोह नष्ट हो गया है, कर्तव्य-अकर्तव्य विषयक स्मृति प्राप्त हो गई है, अब दृढ़तापूर्वक किसी के मरने-जीने और पाप-पुण्य के संदेह से रहित होकर आपके वचनों का पालन करूंगा अर्थात युद्ध करूंगा ।
                  यद्यपि हम यहां पर पहले भी कह चुके हैं कि अर्जुन का मोह मात्र युद्ध विषयक नष्ट हुआ है । उसी कर्तव्याकर्तव्य विषक ही स्मृति प्राप्त की न कि स्वरूप विषयक स्मृति प्राप्त की । इसी प्रकार अध्याय ग्यारह मे भी— मोहोऽयं विगतो मम ११/१ में आया हुआ ‘अयं’ शब्द भी इसी बात का प्रमाण है कि अर्जुन अयं से इस युद्ध विषयक मोह के नाश की बात करते हैं, क्योंकि गीता में अनेक जगहों पर आया है कि आत्मस्वरूप की स्थिति में मोह नहीं होता, तीनो लोकों को मारकर भी उसका पाप नहीं होता है तथापि अर्जुन का मोह इसके बाद युधिष्ठिर के वध की प्रतिज्ञा, अभिमन्यु वध पर सिंधु नरेश जयद्रथ के वध की प्रतिज्ञा इत्यादि अर्जुन के अत्यंत मोहित होने का जीता-जागता प्रमाण है इसके अतिरिक्त महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अध्याय सोलह के अनुगीता में—
विदितं मे महाबाहो सङ्ग्रामे समुपस्थिते ।
माहात्म्यं देवकीमातस्तच्च ते रूपमैश्वरम् ॥म.भा.आ.प.अ.१६/५॥
            अर्जुन कहता है— हे देवकीनन्दन ! जब संग्राम का समय उपस्थित था तब आपके माहात्म्य और ईश्वरीय स्वरूप का ज्ञान हुआ था ।
यत्तद्भगवता प्रोक्तं पुरा केशव सौहृदात् ।
तत्सर्वं पुरुषव्याघ्र नष्टं मे भ्रष्टचेतसः ॥म.भा.आ.प.अ.६॥
                 किन्तु केशव ! आपने जो पहले सौहार्दवश ज्ञान का उपदेश किया था वह सब विचलित चित्त होने के कारण नष्ट हो गया है ।
मम कौतूहलं त्वस्ति तेष्वर्थेषु पुनः पुनः ।
भवांस्तु द्वारकां गतानचिरादिव माधव ॥म.भा.आ.प.अ.७॥
               माधव ! उन विषयों को सुनने के लिए मेरे मन में बारंबार उत्कंठा होती है, क्योंकि आप शीघ्र द्वारका जाने वाले हैं । भाव यह है जाने से पहले शीघ्र वही ज्ञान पुनः सुना दें ।
            इस पर अर्जुन को डांटते हुए भगवान कहते हैं —
नूनमश्रद्धधानोऽसि दुर्मेधा ह्यसि पांडव ।
न च शक्यं पुनर्वक्तुमशेषेण धनञ्जय ॥म.भा.आ.प.अ.११॥
             पाण्डुनन्दन ! निश्चय ही तुम बड़े श्रद्वाहीन हो, क्योंकि तुम्हारी बुद्धि बहुत दुष्ट है । धनंजय ! अब मैं उस ज्ञान को ज्यों का त्यों नहीं दोहरा सकता ।
स हि धर्मः सुपर्यायो ब्रह्मणः पद वेदने ।
न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तुमशेषतः ॥म.भा.आ.प.अ.१२॥
              क्योंकि वह ज्ञान ब्रह्म प्राप्ति के लिए भली-भांति पर्याप्त था । वह सारा ज्ञान उसी रूप में दोहरा पाना अब मेरे वश की बात नहीं है ।
परं हि ब्रह्म कथितेन योगयुक्तेन तन्मया ॥म.भा.आ.प.अ.१३॥
              क्योंकि उस समय योगयुक्त होकर परमतत्त्व का निरूपण किया था ।
            यह संवाद इस बात का साक्षी है कि अर्जुन को स्वरूप की स्मृति नहीं कर्तव्य-अकर्तव्य की स्मृति हुई । स्वरूप में संन्देह रहित होकर स्थित होने की बात न कहकर युद्ध के लिए स्थित कहा, जिसका प्रमाण ‘करिष्ये तव वचनम्’ अर्थात जिस युद्ध के निमित्त इतना व्याख्यान दिया वह युद्ध आपके वचनों का पलन करता हुआ करूंगा ।
            मेरा लक्ष्य अर्जुन को ज्ञानी या अज्ञानी बताना नहीं है वरन् यह बताना है कि कितना भी परमतत्त्व का कोई भी उपदेश क्यों न करे किन्तु कहने वाले और सुनने वाले का जो लक्ष्य होगा उतना ही समझ में आयेगा और वही लक्ष्य पूर्ण होगा अन्य नहीं । अतः गीता के पढ़ने, सुनने और मनन करने का लक्ष्य स्वरूप प्राप्ति होगी तभी उसकी प्राप्ति होगी अन्यथा कोरे ज्ञान तक सिमट कर जहां के तहां रह जायेंगे, अतः गीता स्वाध्याय के साथ-साथ अपना लक्ष्य दृढ़तापूर्वक परमतत्त्व निर्धारण करना भी आवश्यक है॥७३॥

सञ्जय उवाच
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः ।
संवादमिमश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ॥१८/७४॥
व्याप्रसादाच्छ्रुवानेतद्गुह्यमहं परम् ।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् ॥१८/७५॥
राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिमद्भुतम् ।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ॥१८/७६॥
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः ।
विस्मयो मे महान्राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ॥७७॥
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥१८/७८॥
                  इस प्रकार संजय धृतराष्ट्र को अन्त में अपनी रोमांचित स्थिति का वर्णन करते हुए अपने न्याय संगत निजी मन्तव्य का वर्णन करते हैं कि जहां योगेश्वर कृष्ण होंगे एवं धनुर्धारी अर्थात होगा वही विजय रूपी लक्ष्मी और साम्राज्य और यश रूपी ऐश्वर्य होगा ॥७४-७८॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसन्न्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्याययः ।।

हरिॐतत्सत् !                हरिॐतत्सत्  !!                    हरिॐतत्सत् !!!
🌹श्रीकृष्णार्पणमस्तु🌹

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