गीतावलोकन अध्याय २
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीमद्भगवद्गीता
अथ द्वितीयोऽध्यायः
सञ्जय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन ॥२/१॥
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥२/२॥
क्लैव्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्तोत्तिष्ठ परन्तप ॥२/३॥
अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥२/४॥
गुरूनहत्वा हि महानुभावाञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान ॥२/५॥
न चैतद्विमः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥२/६॥
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥२/७॥
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् ।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥२/८॥
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप ।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥२/९॥
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ॥२/१०॥
अध्याय एक का अर्जुन के पक्ष का भगवान उत्तर नरक देने वाला, अनार्य अर्थात वैदिक व्यवस्था से भिन्न, नरक देने वाला और तुच्छ बुद्धि वाला कहकर सावाधान करते हुए कर्तव्य कर्म करने के लिए कमर कसकर खड़े होने अर्थात तैयार होने के लिए कहते हैं । इस पर भी अर्जुन ने नाना प्रकार प्रकार के तर्क उपस्थित करते हुए युद्ध में विजय की अनिश्चतता बताते हुए, किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ कृष्ण की शरण ग्रहण करते हुए शिष्यता स्वीकार कर लेता है और शिक्षा देने की बात कहता है ।
प्रत्येक मनुष्य की यही स्थिति है कि वह शरण तो किसी की भी ग्रहण कर लेता है और कहता भी है कि जो आप कहेंगे वही मैं करूंगा फिर करता अपने मन की ही है । यही बात आज के गुरुओं और शिष्यों की है । गुरु जो कहे वह तो बिल्कुल नहीं करना है करना अपने मन की ही है क्योंकि गुरु ने कहा “वह ब्रह्म तू ही है” तत्त्वमसि और हमने कहा हां वह ब्रह्म मैं ही हूं “अहं ब्रह्मास्मि” किन्तु दूर होते ही मैं (जीव) ब्रह्म कैसे हो सकता है ? इसी पर ही उधेड़बुन करते रहते हैं, और किसी जड़ प्रतिमा के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना प्रारंभ की कि आप ही हमारे माई-बाप हो । उसके अनुसार उसका भी हृदय पत्थर का बन जाता है और आत्मभाव को भूलकर दंद-फंद में लग जाता है । मैं महात्मा हूं का मिथ्या दंभ पालकर ।
अर्जुन भी यह कहता है— “यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे” जो मेरे लिए श्रेष्ठ अर्थात इस भयानक कर्म से निवृत्त हो जाऊं वह कहो । क्यों ? क्योंकि— “श्रेयो भोक्तुमपीह लोके” २/५ मैं भिक्षावृत्ति को ही श्रेष्ठ समझता हूं । और संजय के अनुसार अर्जुन ‘मैं युद्ध नहीं करूंगा’ कहकर रथ के पिछले भाग में बैठ जाता है । यहां विचारणीय तथ्य है कि अर्जुन कहते हैं कि शिक्षा दो मैं शिष्य हूं, आपका शरणागत हूं शरणागत होकर भी ‘मैं युद्ध नहीं करूंगा’ यह अपना निश्चय भी कह देता है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अर्जुन एकमात्र संन्यास के उपदेश की बात कर रहे हैं न कि युद्ध के विषय में परामर्श मांग रहे हैं ।
यहां पर बड़ी गंभीर विचार यह है कि आज के लोगों के झगड़े के अनुसार यदि ब्राह्मण का ही संन्यास में अधिकार है तो अर्जुन संन्यास की बात क्यों करता है ? स्वयं वार्तिककार सुरेश्वराचार्य जी भी इस बात को मानते हैं कि संन्यास त्रैवर्णिक है । फिर भी झगड़ा यह कि केवल ब्राह्मण का ही संन्यास में अधिकार है । एक बार हमने नैमिषारण्य में एक दंड़ी स्वामी से प्रश्न किया कि आप जब ब्राह्मणेतर को संन्यास नहीं दे सकते हैं तो शिष्य क्यों बनाते हो ? इस पर दंडी स्वामी ने कहा कि “हम लोग ब्राह्मणेतर को शिष्य बनाते ही नहीं हैं । मात्र शिष्य के नाम पर भ्रमित करता हूं ताकि मेरा सामान ढो सके क्योंकि ब्राह्मण बालक तो ढोयेगा नहीं ।” यह है हमारे समाज में जातीय समाज के पतन का बीज हठधर्मिता ।
शास्त्र का अवलोकन करने पर जो विदित होता है वह यह है कि ब्राह्मण के लिए आयु के चतुर्थ भाग में संन्यास और क्षत्रिय को वानप्रस्थ अनिवार्य है । अन्य के लिए महाभारत में विदुर के धृतराष्ट्र के साथ वन में जाने के प्रसंग के अन्तर्गत आता है कि वैश्य को जब वैराग्य हो जाये और शूद्र स्वामी की सेवा से तृप्त हो जाये तब स्वामी की आज्ञा से देश-काल का विचार करते हुए वानप्रस्थ गृहण कर लेना चाहिए । अर्थात उन दो के लिए वे दो कर्म अनिवार्य हैं और इन दो के लिए वैराग्य प्रधान होने पर वन जाना चाहिए यह स्पष्ट है । इसका अर्थ यह हुआ कि जो भी ब्राह्मणेतर के संन्यास का वर्जन करते हैं उन्होंने एक मात्र सामाजिक वैमनस्यता के अतिरिक्त कोई शास्त्र पढ़ा ही नहीं है । इनकी बातें एक अबोध बच्चे की तरह उपेक्षणीय हैं ।
साथ ही स्त्री-शूद्र के संन्यास की बात आती है तो विधि की दृष्टि से जिनका जनेउ और चोटी नहीं है उनका संन्यास में अधिकार नहीं है, किन्तु वे भी अवधूत वृत्ति का अवलंबन लेकर परिब्रजन और भिक्षा के अधिकारी हैं । संन्यास का अर्थ होता है सर्व त्याग, लोक से लेकर ब्रह्मलोक पर्यंत संपूर्ण स्पृहा का त्याग । यह स्त्री-शूद्र आदि कहीं भी संभव है । अतः वे अवधूत संज्ञक संन्यास वृत्ति के अधिकारी हैं न कि मुख्य विधि संन्यास का । संन्यास के समय में शिष्य को निर्वस्त्र किया जाता है । अगर स्त्री संन्यास ग्रहण करती है तो विधि के अनुसार उसे भी नंगी होना पड़ेगा, जबकि शास्त्र कहता है कि नग्न परस्त्री पर धोखे से भी दृष्टि पड़ जाये तो तीन बार सरसों का तेल आंख में लगाने से शुद्धि होती है, इसके अनुसार किसी भी परिस्थिति में स्त्री को नग्न देखना वर्जित है, तो संन्यास के समय जानबूझकर किसी स्त्री को नग्न कैसे देखा जा सकता है ?
संन्यास क्यों ग्रहण किया जाता है ? इसलिए कि हमारा कल्याण हो ? तो फिर शास्त्रीय आचरण के बिना कल्याण कैसे संभव है ? कल्याण चाहिए तो शास्त्र विधि का पालन अनिवार्य है । जितनी भी स्त्रियां संन्यास के नाम पर घूम रही हैं वे सभी अवधूतिनी हैं न कि संन्सासिनी । यदि कोई संन्यासिनी है तो गुरु और शिष्या दोनो ही नरक के अधिकारी हैं और उन्हें कोई भी बचा नहीं सकता है ।
प्रसंगवश विषयांतर हो गया । तो अर्जुन की यह दयनीय दशा है कि एक ओर कहता है कि मैं आपका शिष्य हूं, कर्मसंन्यास का मेरे लिए उपदेश करो, दूसरी तरफ कहता है मुझे अनुशासित करो मैं आपकी शरण में हूं, तीसरी तरफ निर्णय स्वयं ही कर लेता है कि मैं युद्ध नहीं करूंगा । इस पर भगवान को हंसी आ गई कि कितना पांडित्य झाड़ रहा है बात कोई भी एक निश्चय वाली नहीं है अतः मुस्कुराते हुए से अर्थात अर्जुन की बात का उपहास सा करते हुए बोले—
श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भासषे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥२/११॥
भगवान कहते हैं कि बड़े-बड़े पंडितों की तरह बातें करने वाले भी जीने मरने की चिन्ता में लगे रहते हैं, और जिस आत्मपद का चिन्तन करने से कभी शोक नहीं होता उस पर विचार भी नहीं करते । यह पांडित्य नहीं है ॥१॥
ऐसा क्यों करते हैं ? इस पर कहते हैं कि—
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥२/१२॥
ऐसे पूर्वपक्षी विचारधारा वाले लोग सोचते हैं यह जो मैं अब हूं, यही हूं, इसके पहले नहीं था,और मरने के बाद भी नहीं रहूंगा, इसी कारण विवेकहीन शोक करते हुए अपने आपको बड़ा ज्ञानी मानते हैं ॥२॥
तो पंडित कौन है ? इस पर कहते हैं—
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥२/१३॥
जैसे कौमार्य आदि अवस्थाएं शरीर की होने पर भी व्यक्ति यह समझता है कि मैं जो बचपन में था वही अब वृद्ध हूं । उसमें मैंपने का बदलाव नहीं होता, वैसे ही शरीर के परिवर्तित होने पर भी धैर्यवान मोहित नहीं होता अर्थात शोक नहीं करता यही पांडित्य है ॥१३॥
फिर परिवर्तन के शोक का त्याग कैसे हो ? इस पर कहते हैं—
मात्रा स्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यांस्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥२/१४॥
जैसे सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख आता है और चला जाता है उसी प्रकार जन्म-मृत्यु भी आने-जाने वाले हैं, अतः उनको अर्थात शारीरिक परिवर्तन को सहन करना चाहिए, क्योंकि शरीर परिवर्तित होने पर भी ‘मैं’ के अर्थभूत आत्मा वही की वही रहती है ॥१४॥
ऐसी तितिक्षा का फल क्या होगा ? इस पर कहते हैं—
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥२/१५॥
जो सुख-दुःख आदि को समान समझते हुए सभी परिवर्तनों को सहन कर लेता है वही श्रेष्ठ धैर्यवान पुरुष मोक्ष प्राप्ति करने में समर्थ होता है ॥१५॥
यह कैसे सहन किया जा सकता है ? इस पर कहते हैं—
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥२/१६॥
सूर्य प्रतिबिंब के समान असत है उसकी तो अपनी कोई सत्ता है नहीं । किन्तु सत्तावान सूर्य का अभाव नहीं होता । उसी प्रकार शरीर आदि भी ‘स्व’ से भिन्न पदार्थों की अपनी कोई स्तंत्र सत्ता है नहीं । अतः उसका नष्ट होना निश्चित ही है । अतः जो निश्चित ही है उसके विषय में क्या शोक करना ? और स्वसंवेद्य आत्मा नित्य है । अतः वह भी शोक के योग्य नहीं है । इस प्रकार के विचारक आत्मतत्त्व को जानने वाले तत्त्वदर्शी कभी शोक नहीं करते ॥१६॥
आत्मा को जानने वाले शोक क्यों नहीं करते ? इसके लिए कहते हैं—
अविनशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥२/१७॥
पहली बात तो यह है कि वे शरीर को आत्मा नहीं मानते, वरन् जिस परमतत्त्व से यह संपूर्ण जगत व्याप्त उसी को ‘मैं’ के अर्थ आत्मा को जानते हैं । वह आत्मा अव्यय अर्थात एकरस है, उसका क्षरण होता नहीं है अतः उसका विनाश कोई भी करने में समर्थ हो नहीं सकता है, अतः शोक नहीं करते ॥१७॥
तो फिर हमने मान लिया कि आत्मा मरता नहीं है तो हमें क्या करना चाहिए ? इस पर कहते हैं—
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥२/१८॥
देखो आखिरकार आप चाहो या न चाहो शरीर नाशवान तो है ही और वह नष्ट होगा ही, जबकि ‘मैं’ का अर्थ जीवात्मा अविनाशी, अप्रमेय, एवं नित्य कहा गया है । अतः जब शरीर का नाश होना ही है तो फिर शरीर के जीर्ण होने, रोगी होने, और नष्ट होने की चिन्ता छोड़कर हे मुमुक्षो ! कमर कस ले ॥१८॥
क्योंकि जो शरीर के नाश से आत्मा का नाश मानते हैं वे—
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥२/१९॥
जो इस अविनाशी आत्मा को मरने या मारने वाला मानते हैं वे कितने भी पंडित हों लेकिन दोनो ही नहीं जानते हैं कि आत्मा न ही मरता है और न ही मारा जाता है ॥१९॥
क्योंकि—
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥२/२०॥
आत्मा न ही कभी जन्मता है और न ही मरता है, इतना ही नहीं, न पहले कभी आत्मा उत्पन्न हुआ था, न इस समय उत्पन्न है और न ही भविष्य में उत्पन्न होगा, कारण कि यह आत्मा अज है, नित्य है, शाश्वत, नित्य नवीन अर्थात एकरस है शरीर के मरने-मारने से आत्मा न मरता है और न ही मारा जाता है ॥२०॥
क्योंकि—
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥२/२१॥
जो इस आत्मा को अविनाशी, नित्य, अव्यय जानता है, तुम्हीं बताओ कि वह कैसे किसी को मार सकता है अथवा उसे ही कोई कैसे मार सकता है ॥२१॥
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥१/२२॥
धीर पुरुष शरीर को एक कपड़े समान शरीर के प्रतिकूल होने पर उसे छोड़कर दूसरे अनुकूल शरीर में जाता हुआ समझता, न कि नष्ट या मरता हुआ ॥२२।।
क्योंकि—
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥२/२३॥
इस आत्मा को न शस्त्र से,न अग्नि से, न जल से, न वायु से ही काटा, जलाया, गलाया या सुखाया जा सकता है, क्योंकि ये सभी सावयव अर्थात सूक्ष्म शरीर वाले और ससीम हैं अतः ससीम शरीर को ही नष्ट कर सकते हैं, असीम अशरीरी आत्मा को नहीं ॥२३॥
अशरीरी होने के कारण ही—
अच्छेद्योऽमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥२/२४॥
यह आत्मा अछेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य भी है । यह आत्मा अजन्मा होने से नित्य, घनीभूत होने से सर्वगत, एवं स्थाणु और अचल एवं सदा स्थिर रहने वाला है ॥२४॥
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥२/२५॥
वाणी द्वारा व्यक्त न होने वाली यह आत्मा मन से भी अचिन्य,जन्मादि षड्विकारों से रहित कही गई है अतः यह किसी भी मोक्षार्थी के लिए शोक करने योग्य नहीं है वरन् प्राप्तव्य है ॥२५॥
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥२/२६॥
फिर भी यदि मान भी लिया जाये कि यह आत्मा ही बारंबार जन्मता और मरता तो भी शोक करना बुद्धिमान के योग्य नहीं है ॥२६॥
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्ममृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥२/२७॥
क्योंकि जिसका जन्म हुआ है उसका मरण और मरे हुए का जन्म निश्चित है । तो फिर जो निश्चित है, उसका निवारण हो नहीं सकता है फिर उसके निवारण के क्यों व्यर्थ शोक करना ? ॥२/२७॥
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥२/२८॥
प्रश्न यह है कि मान भी लें जन्म-मृत्यु ध्रुव सत्य है तो भी शोक क्यों नहीं करना चाहिए ? कहते जो कल नहीं और आने वाले कल में भी नहीं होगा और बीच में दिख रहा है, अतः जो पहले नहीं था और बाद में भी नहीं रहेगा, तो फिर बीच का होना भी भ्रम है, अतः भ्रम का निवारण करना चाहिए, शोक करने का तो प्रश्न ही नहीं बनता ॥२८॥
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद चैव कश्चित् ॥२/२९॥
क्योंकि हमें शोक क्यों होता है ? इस पर विचार करने पर देखते हैं कि जब आत्मस्वरूप का विचार किया गया तो बड़ा आश्चर्य यह हुआ कि जैसा आत्मा को अभी तक कार्य-करण संघात वाला समझा गया वह उससे भिन्न है, वह किस रूप वाला है यह कहना भी नहीं बनता है और जितना कह भी दिया जाता है उस किसी विरले के द्वारा कहने वाला और विरले के द्वारा सुनकर समझा जाना दोनों आश्चर्य है, उससे भी बढ़कर आश्चर्य यह है बहुत— अधिकतर लोग सुनकर भी उसे नहीं समझ पाते (पश्यति का अर्थ समझना) ॥२९॥
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥२/३०॥
आत्मा के स्वरूप को जानकर उसे नित्य अवध्य अर्थात, नित्य, अविनाशी जानकर आत्मा शोक के योग्य नहीं है । (यह शोक वैसा ही है जैसे अपने मरने का शोक आप ही मनावे) ॥३०॥
अभी तक आत्मदृष्टि से बताया कि अपने लक्ष्य पर शरीर के सुखी-दुःखी, जन्म-मृत्यु आदि की चिन्ता छोड़कर लग जा । अब व्यावहारिक दृष्टिकोण से बताते हैं—
स्वधर्मपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥२/३१॥
आपने संन्यास धर्म को भी देखकर विचालित नहीं होना चाहिए, कि उसे सिद्धि-असिद्धि के चक्कर में पड़कर, मंदिर, हवन आदि लोक दिखावा न करते हुए मात्र प्रेसमंत्र एवं महावाक्य को ही आधार बना लेना चाहिए । क्योंकि ज्ञान की दृष्टि से संन्यासी की शूरवीरता कर्माकांड, प्रवचन, आश्रमादि पर धर्म संग्रह में नहीं, बल्कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति के कमर कसना है । उसे एकमात्र आत्मनिष्ठा से भिन्न अन्य कोई धर्म है ही नहीं । अध्यात्मज्ञाननित्यत्त्वं तत्त्वज्ञानार्थ दर्शनम् । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥१३/११॥ अर्थात आत्मनिष्ठा से भिन्न जो भी ज्ञान-विज्ञान है वह सब अज्ञान है ॥३१॥
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥२/३२॥
यदि कोई शक्तिपात आदि के माध्यम से सीधे किसी दिव्य प्रकाश का दर्शन भी करा दे तो वह भी मोक्षार्थी को सुखी नहीं कर सकता है क्योंकि वह जिसका भी दर्शन करेगा वह ‘स्व’ से भिन्न होगा और उससे स्वर्गादि लोक ही प्राप्त होंगे जो अन्त में दुःखद ही हैं इसलिए मोक्षार्थ पुरुषार्थ पूर्वक आत्मनिष्ठा प्राप्ति के लिए कमर कसने पर ही सुखी होता है ॥३२॥
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥२/३३॥
इस प्रकार अपने संन्यास धर्म को जानकर भी जो विविदिषु संन्यासी यदि ज्ञानमय आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए उसके उपाय महावाक्य, प्रेसमंत्रादि द्वारा पुरुषार्थ करने के लिए कमर नहीं कसता है तो वह अपने संन्यास धर्म का नाश करके पाप को प्राप्त करता है । जैसा कि आज परधर्म ग्रहण करके स्वधर्म का त्याग करने के कारण ही संन्यासियों को जेल तक की हवा खानी पड़ रही है ॥३३॥
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्यायम् ।
संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ॥२/३४॥
यह पापमय अपयश युगों युगों तक लोग कहते हैं अर्थात यह कलंक कभी नहीं मिटता है कि अमुक संन्यासी बड़ा त्यागी बनता था और ऐसे काले कारनामों वाला निकला । ऐसी अपकीर्ति तो मृत्यु से भी बढ़कर है । अर्थात विवेकशील के लिए तो मरना अच्छा है लेकिन परधर्म के कारण प्राप्त अपयश असहनीय कहा गया/होता है ॥३४॥
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥२/३५॥
लोग कहते हैं कि यह विषयी है, यह समाज सेवा के लिए धन आदि संग्रह नहीं करता है बल्कि अपने उदर पूर्ति और वासना तृप्ति के लिए धन संग्रह करता है, ऐसा वे भी कहेंगे जो कभी पहले विरक्तशिरोमणि, वेदान्त केशरी कहते थे । औदार्य भाव को कोई नहीं देखेगा । अतः जिनका तू सम्माननीय, पूजनीय था और जो तुझे अपना गुरु मानते हैं उनके बीच में भी लघुता अर्थात नीचता को प्राप्त होगा अर्थात वे भी सम्मान नहीं करेंगे ॥३५॥
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ॥२/३६॥
लोग नाना प्रकार की गालियां देंगे, न कहने योग्य कहते हुए त्याग वैराग्य की निन्दा करते हुए केवल मुमुक्षु संन्यासी का अहित ही सोचेंगे— जैसा कि आज के समय में देखने को मिल रहा है, वह निंदनीय दुःख भी कैसे सहन होगा ? अर्थात यदि सहन ही करना है तो आत्मप्राप्ति के उपायभूत साधनों से उत्पन्न क्लेश ही सहो जिससे इस संसार के दुःखद कारण जन्म का ही नाश हो जाये ॥३६॥
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृत निश्चयः ॥२/३७॥
यदि साधना करते करते मर भी गया तो भी स्वर्ग का ईश्वर्य भोग प्राप्त होगा जैसा कि अध्याय छः में भी योगभ्रष्ट के स्वर्ग, ऐश्वर्य और पुनर्जन्म के विषय में कहा है और यदि सफल हो गया तो जीते जी मोक्ष का अनुभव करेगा और शरीर से मोक्षार्थियों को मिलने वाली शिक्षा और उससे होने वाले कल्याण के फलस्वरूप संसार में भी यश फैलेगा । पश्चात परम पद की प्राप्ति तो निश्चित ही है, अतः — कार्यं साधयामि वा देहं पातयामि ॥३७॥
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाययौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पाममवाप्स्यसि ॥२/३८॥
इसलिए शरीर की अनुकूलता एवं प्रतिकूलता पर ध्यान न देकर अर्थात सुख-दुःखादि द्वान्द्वों को सहन करता हुआ, यह भी भूल जा कि मैं मोक्ष के लिए प्रयत्नशील हूं । मोक्ष मिले या न मिले दोनों को समान समझकर अपनी आत्मनिष्ठा में स्थिति प्राप्ति के लिए कमर कस ले तो पाप नहीं लगेगा अर्थात जन्म के बीज का नाश हो ही जायेगा । क्योंकि— निर्दोषं हि समं ब्रह्म ५/१९ यही सम भाव निर्दोष ब्रह्म है ॥३८॥
एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥२/३९॥
भगवान कहते हैं कि हे मुमुक्षो ! यह तो ज्ञानयोग तेरे लिए कहा है, यह ज्ञानयोग क्रिया प्रधान नहीं विचार प्रधान है । किन्तु यदि तू अपनी आदत के कारण यदि बिना क्रिया के नहीं रह सकता है तो अब क्रियायोग अर्थात कर्मयोग को सुन- जिससे युक्त होकर विवेक द्वारा कर्मबंधन को काट डालेगा ॥३९॥
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥२/४०॥
क्योंकि इस मनुष्य लोक में ज्ञानयोग का आश्रय लेकर आरंभ किये जाने वाले कर्म का प्रत्यवाय नहीं होता अर्थात पाप नहीं लगता, कारण कि समत्त्वबुद्धि से थोड़ा भी अपने संन्यास धर्म का पालन किये जाने पर जन्म-मृत्यु रूप महान भय का नाश कर देता है । (यहां मूल का ‘अस्य’ पद श्लोक ३८ में कहे गये ‘सम’ के लिए है) ॥४०॥
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥४१॥
परम पुरुषार्थ सिद्ध करने की इच्छा वाले को यह समझ लेना चाहिए कि ज्ञानयोग का आश्रय लेने वाली कल्याणकारी आत्मनिष्ठ बुद्धि (वृत्ति) एक ही होती है । किन्तु दुःखद जन्म-मृत्यु का हेतु अनात्मभाव में स्थित सकाम कर्मों को आधीन बुद्धि (वृत्ति) की ही अनन्त शाखाएं होती हैं ॥४१॥
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥२/४२॥
पहले बहुत शाखाओं वाली बुद्धि अर्थात वृत्ति के दोष दिखाए जा रहे हैं— हे आत्मा-अनात्मा जाने पृथक् भाव को जानने के इच्छुक ! वेद के तात्पर्य को जिस काममयी बुद्धि का आश्रय लेकर सुगंध हीन फूलों की तरह कामना पूर्ति के निमित्त मन को आकर्षित करने वाली वाणी अर्थात ऋचाओं का वाणी द्वारा वर्णन करते हुए वेदवादी लोग जो वेद के तात्पर्य को न जानने वाले अविवेकी लोग कहते हैं कि स्वर्गादि कामपूर्ति के अतिरिक्त और कोई ईश्वर है ही नहीं ।
यहां पर यह बताया गया है कि वृत्ति इतनी आसक्त और अन्धी हो जाती है कि उसे कामपूर्ति से अतिरिक्त कोई ईश्वर भी है ऐसा मन में भी नहीं आता है ॥४२॥
कामात्मना स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥२/४३॥
ऐसे वेद के तात्पर्य को न जानने वालों की काममयी बुद्धि नाना प्रकार के दुःख के हेतु जन्म-मृत्यु रूपी फल को प्रदान करने वाले कर्मों की जो भोग और नाशवान सांसारिक ऐश्वर्य देने वाली हैं ऐसी बहुत प्रकार की विशिष्ट क्रियाओं के प्रति आसक्त रहते रहते हैं ॥४३॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥२/४४॥
उन काममयी ऋचाओं के द्वारा भोग एवं सांसारिक ऐश्वर्य के प्रति अत्यंत आसक्त विवेकहीन वेदवादियों अर्थात वेद के तात्पर्य को न जानकार भी वेद के नाम पर झगड़ा करने वालों का चित्त हरण कर लिया गया है । जैसे आतंकवादी किसी का अपहरण कर लेता है और फिर नाना प्रकार के क्लेश देता हुआ मौत के घाट उतार देता है ठीक वैसे ही हरण किये हुए मन वालों की बुद्धि कभी समाधि को प्राप्त नहीं होती अर्थात वह कभी शान्ति को प्राप्त नहीं होती है वह न तो जीते जी सुखी या शान्ति को प्राप्त करता है और न मरने पर ही, नाना प्रकार की योनियों में भ्रमण करता हूआ क्लेश ही क्लेश प्राप्त करता है यह भाव है ॥४४॥
यहां तक दुःखप्रद अनन्त शाखाओं वाली बुद्धि का वर्णन किया, अब इस दुःखद बुद्धि को सुखद किस प्रकार बनाया जा सकता है ? इसका वर्णन एकमात्र आत्मनिष्ठ के रूप में करते हैं—
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥२/४५॥
वेद यानी सकाम कर्म का वर्णन करने वाली ऋचाएं त्रिगुणात्मक वर्णन करते हैं जिसकी पुनः अनन्त शाखाएं हो जाती हैं, अर्थात जिन तीनो गुणों की स्वयं अपनी एकरूपता नहीं है वे एकरस शान्ति कैसे प्रदान कर सकती हैं ? अतः क्रियाविशेष बहुलां २/४३ का वर्णन करने वाली ऋचाओं का त्याग करके उन से ऊपर उठकर स्थित हो जा । अर्थात तीनों गुणों से ऊपर उठना ही शान्ति अर्थात मोक्ष का द्वार है । इस द्वार में प्रवेश पाने के लिए पहला तो लक्षण है निर्द्वन्द्वता, किसी भी प्रकार का द्वन्द्व नहीं, न हानि का,न लाभ का, न जीवन का, न मरण का, न भक्त का, न भगवान का, न जीव का न ब्रह्म का अर्थात सभी प्रकार के द्वन्दों से मुक्त होना अर्थात पूर्णतः निर्भय होकर इस पहले द्वार में प्रवेश करना है । दूसरा द्वार है नित्यसत्त्व भाव में स्थित होना, यहां सत्त्व का अर्थ सत्त्वगुण नहीं है वरन् सत्त्व का अर्थ है जीव या आत्मा तात्पर्य यह है कि नित्य-निरंतर आत्मा-अनात्मा का नीर-क्षीर की भांति विचार करना, वेदों के अन्तिम लक्ष्य महावाक्यों पर नित्य-निरंतर विचार करना— यह दूसरा द्वार है । जब पहला और दूसरा द्वार पार कर जाये तब निर्योगक्षेम अर्थात प्राप्त की रक्षा और अप्राप्त की प्राप्ति के भावों का भी काकविष्ठा के समान परित्याग कर दे, अर्थात आत्मा अनात्मा का विवेक होने के पश्चात अनात्म पदार्थ का त्याग कर दे क्योंकि उसी के योगक्षेम की आवश्यकता होती है आत्म पदार्थ की नहीं । आत्म पदार्थ तो नित्य प्राप्त एवं स्व-महिमा में स्थित नित्य है, अतः अनात्म पदार्थ का त्याग करना ही निर्योगक्षेम होना है । इस प्रकार निर्द्वन्द्वः से तमोगुण का त्याग, नित्यसत्त्वस्थः से रजोगुण का त्याग, निर्योगक्षेम से सत्त्वगुण का त्याग करना ही तीनो गुणों का त्याग करना है । जब इस प्रकार इन तीनों गुणों का त्याग हो जाये तो स्व-महिमा से महिमावान् आत्मभाव में निर्विकल्प स्थित हो जाये । यही आत्मभाव त्रिगुणात्मक सत्ता से परे त्रिगुणों को सत्ता देने वाला ब्राह्मी भाव है । इसी को एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति २/७२ अर्थात पहले जो दिखाऊ पुष्प एवं कामनाओं से हरण किये गये चित्त की बात कहा था उसी का समाधान यहां बताया गया है इस प्रकार आत्मवान् अर्थात आत्मस्थ हो जाने पर उन आकर्षक दुःखद जन्म-मृत्यु के हेतु ऋचाओं से ऊपर उठकर अनन्त समाधि अर्थात शान्ति को प्राप्त करना चाहिए ।
यहां पर यह भ्रम बिल्कुल नहीं पालना चाहिए कि वेदों को तीनो गुणों का विषय कहकर वेदों की निंदा की है और उनका त्याग करके तीनो गुणों से रहित होने की बात कही है, क्योंकि आगे भगवान अध्याय ३/४ में सीधे कहते हैं कि बिना कर्म का आरंभ किये नैष्कर्म्य सिद्धि नहीं हो सकती है । अतः जब कर्म करेगा तो यदि वेदों को त्याग कर देगा तो कर्म करेगा कहां से ? क्योंकि कर्मों के स्वरूप प्रतिपादन तो वेद ही करेगा अध्याय तीन में यज्ञों का प्रतिपादन, अध्याय चार में किं कर्म किमकर्मेति ४/१६ इत्यादि कर्मों के स्वरूप का प्रतिपादन, अध्याय अठारह में- यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् । यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥१८/५ इत्यादि में वर्णित विषय तो वेदोक्त ही हैं, तो भला भगवान् भांग खाकर तो प्रवचन नहीं किया होगा कि पहले वेदों के त्याग के लिए कहा और बाद में उसी त्यागे वेद से यज्ञादि कर्मों का वर्णन करने लगे । भांग तो अपने हठ की हमने खा रखी है कि संप्रदाय रक्षा के लिए भगवान के तात्पर्य को दरकिनार करके हम भगवान की वाणी पर ही प्रश्न चिह्न लगा देते हैं ।
भगवान ने गीता में दो ही बातें कही हैं और वह यह कि सबसे पहले तो कर्म का स्वरूप से ही त्याग कर देना चाहिए । दूसरी बात यह कि यदि कर्म को स्वरूप से नहीं त्याग सकते तो वही वैदिक कर्म करो जो पूर्वमीमांसा यानि वेदों के कार्मकांड विभाग में कहे गए हैं लेकिन कैसे करना है उसका विवेचन सकाम कर्म की निंदा और निष्काम कर्म की प्रशंसा द्वारा बताते हैं । अतः गीता के तात्पर्य को समझकर मन की गंदगी निकालकर न स्वयं भ्रमित होओ और न ही दूसरे को भ्रमित करो ॥४५॥
अब यहां बताया जा रहा है कि आत्मवान होने से लाभ कितना होगा ?
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥२/४६॥
जैसे छोटे-छोटे गड्ढों में भरा हुआ पानी जो एक व्यक्ति की प्यास नहीं बुझा सकता, किन्तु उसी से वह अपने को तृप्त मानता हो, कदाचित उसे चारों ओर से परिपूर्ण अर्थात अनन्त जलराशि (मीठा समुद्र) मिल जाये तो उसका जितना प्रयोजन गड्ढे के जल से होता है अर्थात जैसे उसका गड्ढे के जल से कोई प्रयोजन नहीं होता है, उसी प्रकार वेद के तात्पर्य को भली-भांति जानने वाले का ब्रह्मलोक पर्यंत गड्ढे के जल के समान आत्मनिष्ठ (ब्रह्मनिष्ठ) का कोई प्रयोजन नहीं होता ॥४६॥
अब आगे समत्त्वबुद्धि से किस प्रकार युक्त होकर कर्म करे जो तीनों गुणों को पार करके आत्मभाव में स्थित हो इसका आगे वर्णन प्रारंभ करते हैं—
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥२/४७॥
पहली बात ये है कि जब मुमुक्षु आत्मा-अनात्मा का विवेक कर लेगा तो वह यह भी जान लेगा कि आत्मा निर्विकार और नित्य होने से अक्रिय अपरिणामी है । जबकि अनात्मा चैत्यन्य सत्ता के आश्रित होने के कारण क्रियमाण है । जो क्रियमाण है वह परिणामी अर्थात नाशवान है अतः मुमुक्षु को कर्म करने का तो अधिकार है लेकिन उसके फल अर्थात उसकी सफलता या असफलता पर अधिकार कदापि नहीं है । इतना ही नहीं कि चलो मैने अपने स्वार्थ का त्याग करके कर्म किया है तो लोगों में मैने ही अमुक कर्म किया, यह बताकर उसका श्रेय ले लें बल्कि वह जो कर्तापन का भाव है वह भी नहीं होना चाहिए, और कर्तापन के भाव का अभाव भी जिस वृत्ति से होता है उस अभाव से भी आसक्ति नहीं होनी चाहिए अर्थात कर्ता,क्रिया और कर्म तीनो ही वृत्तियों का अभाव होना चाहिए मुमुक्षु में ॥४७॥
ऐसा कैसे संभव है ? इस पर कहते हैं—
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥२/४८॥
सिद्धि और असिद्धि अर्थात सफलता एवं असफलता दोनों ही त्रिगुणात्मक प्रकृति का क्रियमाण धर्म है अतः ये भी अनित्य और दुःखद हैं अतः इन दोनो में समभाव में स्थित होकर परमार्थ रूपी धन का सञ्चय करने के इच्छुक मुमुक्षु को कर्म की आसक्ति का त्याग करके योग में स्थित हुआ कर्म करना चाहिए, क्यों समत्त्व को योग कहा गया है ।
यहां योग का अर्थ आत्मभाव है क्योंकि आत्मा अक्रिय है और अनात्मा क्रियामाण । सिद्धि असिद्धि का तात्पर्य है अनात्म पदार्थ का त्याग करके आत्मभाव में स्थित होकर कर्म करना अर्थात सम भाव ही आत्मभाव कहा गया है जिसे श्लोक ५० में स्पष्ट किया गया है । इसका स्पष्टीकरण अध्याय ६/३२ में आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन से भी किया गया है ॥४८॥
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणः फलहेतवः ॥२/४९॥
परमार्थ धन को लोभी को उचित है कि दूसरे अर्थित अविवेकपूर्ण सकाम कर्म हैं उनको ज्ञानयोग का आश्रय लेकर दूर से ही त्याग दे । ज्ञानयोग की शरण ग्राहण करके अर्थात आत्मा-अनात्मा का शोधन करे क्यों फल तो दीनता अर्थात जन्म-मृत्यु का हेतु होने से देवताओं का पशु बनाकर दीन-हीन दशा को प्राप्त कराने वाले हैं ॥४९॥
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥२/५०॥
आत्मभाव से युक्त बुद्धि द्वारा इस लोक में पुण्यमय किये गये कर्म और उसके फल एवं पापमय किये गये कर्म और उसके नष्ट हो जाते हैं, इसलिए योग अर्थात आत्मा का ही अनुसंधान करना चाहिए क्योंकि संपूर्ण कर्मों की कुशलता अर्थात चतुराई आत्मभाव में स्थित होना ही है ।
समत्त्व का अर्थ योग और योग का अर्थ आत्मा किया गया है । इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि यहां वर्णित आत्मा परमात्मा से भिन्न नहीं अभिन्न है— निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ५/१९ अर्थात यहां पर कहा गया है कि जिसका मन भली प्रकार से समभाव में स्थित हो चुका है वे ब्रह्म में ही स्थित हैं क्यों ब्रह्म निर्दोष अर्थात जन्मादि षड्विकारों से रहित और सम है ॥५०॥
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥२/५१॥
आत्मभाव से युक्त अर्थात ज्ञानयोग का आश्रय लेकर कर्म करने वाले मनीषी अर्थात कर्म के रहस्य को जानने वाले तत्त्वदर्शी कर्म से उत्पन्न उसके फल का त्याग करके— यहां ध्यान देने की बात है ‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ १२/१२ आगे भी कहा जायेगा । अतः वही यहां कर्मफल से उत्पन्न पुण्य-पापमय फल का त्याग करके अनामय पद अर्थात जिसमें जन्मादि षड्विकारों का अत्यंताभाव है ऐसे मोक्ष नामक स्व से अभिन्न परम पद को प्राप्त कर लेते हैं ॥५१॥
यदा ते मोह कलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥२/५२॥
यह आत्मपद कब मिलेगा ? कितना समय लगेगा ? इस पर कहते हैं कि लक्षण मैं बता देता हूं और समझ आप लो कि कब वह वह पद मिलेगा— जिस समय मुमुक्षु की बुद्धि पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक पर्यंत प्राप्त-अप्राप्त विषयों के मोह को पार कर जायेगी अर्थात कामानाओ से रहित हो जायेगी उसी समय बिना एक भी क्षण गंवाये जो वैदिक ऋचाओं द्वारा दिखाऊ पुष्प के समान सुने गये हैं और भविष्य में सुने जायेंगे उन सभी जन्म-मृत्यु के हेतु कर्म और उसके फल अर्थात अनात्म पदार्थ से वैराग्य होकर निर्वेद पद को प्राप्त कर लेगा अर्थात अक्रिय आत्मपद का निश्चय करके एकनिष्ठ स्थित हो जायेगी । इसी भाव को ‘नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति १८/४९ कहा गया है ॥५२॥
श्रुति विप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥२/५३॥
इस प्रकार आत्मनिश्चय होकर एकनिष्ठ होने पर जो नाना प्रकार की सकाम ऋचाओं से भ्रमित हुई बुद्धि जिस समय निश्चल भाव को प्राप्त हो जाती है उसी समय बुद्धि अचल समाधि में स्थित होकर योग को अर्थात मानव जीवन के चरम लक्ष्य, परम पुरुषार्थ मोक्षस्वरूप ब्रह्म पद को प्राप्त कर लेता है ॥५३॥
विशेष :— अब तक के विचार में तथ्य जो सामने आया है उसका सारांश यह है कि पहली बात उत्तम कोटि के साधक के लिए किसी भी प्रकार अन्य कोई भी कर्म है ही नहीं एक मात्र उसका कर्म है कर्म का स्वरूप से त्याग करके आत्मा-अनात्मा के विवेक पूर्वक अनात्मा का त्याग करके निष्क्रिय आत्मभाव में स्थित होना, इसी को आगे कहेंगे—
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥१३/११॥
अर्थात आत्मा का साक्षात्कार कराने वाले साधनों में नित्य-निरंतर अभ्यासरत रहना, उस साधनों के फलस्वरूप उत्पन्न आत्मा के ज्ञान के अर्थभूत तात्त्विक स्वरूप का दर्शन करना अर्थात जीव-ब्रह्म की एकता का अनुभव करना यही वास्तविक ज्ञान है, इससे भिन्न जो कुछ भी है वह अज्ञान है । यह स्वरूप से कर्मत्याग करने वाले उत्तम अधिकारी की साधना है । किन्तु जो स्वरूप से कर्मत्याग नहीं कर सकते हैं वे ज्ञानयोग का आश्रय लेकर कर्म के तात्त्विक स्वारूप को समझकर कर्म करें जैसा कि अध्याय तीन और चार में कहा जायेगा । इसमें पहला सांख्ययोगी अर्थात ज्ञानयोगी दूसरा बुद्धियोग से युक्त अर्थात आत्मा-अनात्मा के विवेक पूर्वक उसे सार-आसार भाव को समझकर कर्म करने वाला कर्योगी कहा गया है । संपूर्ण गीता में पहले वाले की स्तुति और दूसरे वाले को स्वधर्मानुसार विविदिषु संन्यासी को उसकी परंपरानुसार कर्म करने पर बल दिया गया है ।
आत्मभाव में स्थित हुए की महिमा सुनकर अर्जुन के मन में जिज्ञासा हुई कि आत्मवान की इतनी बड़ी महिमा है इसलिए—
अर्जुन उवाच
स्थित प्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्तस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत ब्रजेत किम् ॥२/५४॥
अर्जुन जिज्ञासा पूर्वक कहते हैं कि आप तो इन्द्रियों के स्वामी हो अतः यह बाताओ कि जिसकी बुद्धि आत्मा में प्रतिष्ठित है उसका लक्षण क्या है ? उसकी बुद्धि आत्मा में स्थित बुद्धिवाला किस प्रकार बोलता है ? वह कैसे बैठता है और चलता कैसे है ?
यहां पर अर्जुन एक साथ दो प्रश्न सिद्ध और साधक की दृष्टि से पूछता है कि जो आत्मसिद्ध हैं और जो आत्मसिद्धि को प्राप्त होने वाले हैं उनका परिचय क्या है ? आत्मा में स्थित सिद्ध शरीर के रहने तक बोलता किस प्रकार है और साधक और साधक के बोलने का ढंग क्या होगा ? इसके अतिरिक्त उसके बैठने और चलने के लक्षण सिद्ध के क्या हैं और साधक में क्या होंगे ? इस प्रकार सिद्ध और साधक दोनो एक दूसरे में ओतप्रोत हैं भगवान भी उसी प्रकार सिद्ध के लक्षण बताते हुए उन्हीं लक्षणों का साधक के द्वारा अनुकरणीय फल सहित अध्याय समाप्ति पर्यंत बताएंगे । यहां पर मुख्यतः दो ही प्रश्न समझना चाहिए, पहला साधक-सिद्ध का लक्षण और दूसरा व्यवहार ॥५३॥
श्रीभगवानुवाच
प्रजाहित यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थित प्रज्ञस्तदोच्यते ॥२/५५॥
श्रीभगवान कहते हैं कि जिस समय मनोगत संपूर्ण कामनाएं नष्ट हो जायें उसी समय साधक को आत्मास्थ बुद्धि वाला समझना चाहिए ॥५५॥
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥२/५६॥
दुःख में मन के व्याकुल न होना सुख के स्पर्श से पंचविषयों की आसक्ति एवं भय तथा क्रोध से रहित को आत्मस्थ बुद्धि वाला कहते हैं ॥५६॥
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥२/५७॥
जो शुभ और अशुभ विषयों की प्राप्ति में सर्वत्र स्नेह अर्थात राग-द्वेष रहित, अनुकूल का अभिनंदन नहीं, प्रतिकूल से द्वेष नहीं करता उसकी बुद्धि आत्मा में प्रतिष्ठित है ॥२/५७॥
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥२/५८॥
जब कछुए के समान अपनी संपूर्ण इन्द्रियों को उनके विषयों से खींचकर आत्मा में ही निर्विकार स्थित हो जाता है तब उसकी बुद्धि आत्मा में प्रतिष्ठित होती है ॥५८॥
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥२/५९॥
शरीर धारी रोग-उपवास आदि के कारण विषयों से निवृत्त होकर अर्थात उनका त्याग करके निराहारी होने पर भी विषयों का रस मन से नहीं जाता, किन्तु इस आत्मोपासक के परंतत्त्व सर्वात्मभाव का अनुभव कर लेने पर मन से भी विषयों का निवारण हो जाता है, अर्थात स्वरूप से विषय अर्थात अनात्म पदार्थ का त्याग हो जाता है ॥५९॥
ययतो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥२/६०॥
क्योंकि प्रयत्नशील मोक्षार्थी बुद्धिमान मनुष्य की प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियां उनके विषयों में आसक्ति के कारण बलपूर्वक मन का हरण कर लेती हैं ॥६०॥
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥२/६१॥
इसलिए मुमुक्षु उन सभी इन्द्रियों का नियमन करके प्रकृति से परे निक्रिय परम आत्मतत्त्व में स्थित हुआ शान्त भाव से बैठता है । अतः जिसकी इन्द्रियां वश में हैं उसकी ही बुद्धि आत्मा में प्रतिष्ठित है ॥६१॥
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥२/६२॥
यह समस्या विषयी पुरुषों के संग से उत्पन्न होती है । पहले जिन विषयों का संग करता है, फिर उन विषयों का मन में चिन्तन करता है, फिर उनमें भोग्य बुद्धि उत्पन्न होने के कारण उनकी प्राप्ति की इच्छा होती है । प्राप्त करने में उत्पन्न होने वाली बाधा के कारण क्रोध उत्पन्न होता है ॥६२॥
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥२/६३॥
क्रोध से मूढ़ता छा जाती है, मूढ़ता के कारण हित-अहित का विचार नष्ट हो जाता है और विचार नष्ट होते ही मनुष्य वह कर बैठता है जिसके विषय में उसने स्वप्न में भी कुछ नहीं सोचा होगा अर्थात उसका पतन यानी ऐसे कुकर्म से उसी का नाश हो जाता है ॥६४॥
रागद्वेष वियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥२/६४॥
अपने वश में किये हुए अन्तःकरण वाला समदर्शी मुमुक्षु राग-द्वेष से रहित होकर विषयों में विचारण करते हुए प्रसन्नता (मन की निर्मलता) को प्राप्त करता है ॥६४॥
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशुः बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥२/६५॥
अन्तःकरण की निर्मलता से इस समत्वयोग का आश्रय लेने वाले मुमुक्षु साधक के संपूर्ण वासना जनित दुःखों का नाश हो जाता है, क्योंकि चित्तशुद्धि के कारण बुद्धि शीघ्र आत्मा में प्रतिष्ठित हो जाती है ॥६५॥
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥२/६६॥
विवेक का आत्मभाव से युक्त न होने से व्यापक भावना नहीं बनती, बिना व्यापक भावना के शान्ति नहीं मिलती । बिना शान्ति के सुख कहां ? अर्थात बिना शान्ति के सुख नहीं मिल सकता ॥६६॥
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥२/६७॥
क्योंकि मन एक भी इन्द्रिय के आधीन होकर उसके विषयों में विचारण तो तो इन्द्रियाधीन मन के द्वारा इस साधक का मन वैसे ही हरण कर लिया जाता है जैसे बहुत बड़े तूफान द्वारा नदी में नाव (किस्ती) का हरण कर लिया जाता है ॥६७॥
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥२/६८॥
इसलिए महापराक्रम करके संपूर्ण इन्द्रियों उनके विषयों से जिसने अनुशासित कर लिया अर्थात वश में कर लिया है उसकी बुद्धि आत्मा में प्रतिष्ठित है ॥६८॥
या निशा सर्वभूताना तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥२/६९॥
जो आत्मप्रकाश संपूर्ण प्राणियों के अन्धाकारमय रात्रि के समान उसी आत्मप्रकाश में इन्द्रियों का संयम करने वाला स्थित होता है । जिस अपने स्वरूप को ही ढक देने वाले अंधकारमय अनात्मभाव में संपूर्ण जगत जागता है, उसमें मननशील मुनि सोता है अर्थात वह मननशील मुनि के दुःखद अन्धाकारमय अर्थात अज्ञानमय होने से उसकी उपेक्षा कर देता है ॥६९॥
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति सर्वे ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥२/७०॥
जैसे चारों ओर से संपूर्ण उफनती हुई वर्षा की नदियां समुद्र में अपने अन्दर समेटे मिट्टी, लकड़ी आदि कचरा सहित समुद्र में समाहित हो जाती हैं किन्तु समुद्र अपनी अचल प्रतिष्ठा अर्थात मर्यादा में स्थित रहता है उसमें न तो बाढ़ ही आती है और न ही पानी में कोई परिवर्तन होता है उसी प्रकार जिस में संपूर्ण कामनाएं प्रवेश कर गई हैं अर्थात जहां से संकल्प विकल्प उठते हैं वहीं उसी चैतन्य सत्ता में संकल्प-विकल्प प्रवेश कर जाते हैं वही वही शान्ति पद प्राप्त करता है अर्थात जिसके संकल्प-विकल्प पूर्णतः शान्त हो गये हैं वही परम शान्ति को प्राप्त करता है । जिसमें संकल्प-विकल्प हैं वह कभी शान्ति पद को प्राप्त नहीं कर सकता ।
भावार्थ यह है सकाम कर्मी जो तीनों गुणों में से किसी भी एक गुण के आधीन रहने वाला शान्ति को प्राप्त नहीं कर सकता है यही है ‘त्रैगुण्यविषयावेदा’ जो सदैव अशान्त रहता है और संपूर्ण कामनाओं का त्याग करने वाला ‘निस्त्रैगुण्य’ हो जाता है जिससे परम शान्ति प्राप्त करता है ॥७९॥
उपरोक्त शान्ति प्राप्त कैसे होती है उसको पुनः स्पष्ट करते हैं—
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥२/७१॥
जो मुमुक्षु संपूर्ण कामनाओं का त्याग करके स्पृहा रहित हो जाता है, अनात्म पदार्थ से से ममता का नाश हो जाता और सहित सहित संपूर्ण अनात्मपदार्थ से सीमित अहंता को नष्ट कर देता है वही शान्ति को प्राप्त करता है ॥७१॥
यहां विहाय कामान् से ‘प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् २/५५ समझाना चाहिए एवं शान्ति पद को आगे स्पष्ट करते हैं—
एषा ब्राह्मी स्थितः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥२/७२॥
जिसने भी आत्मा-अनात्मा के विवेक पूर्वक उपरोक्त उद्यम करके यह परम शान्ति प्राप्त की, उस मुमुक्षु की यह आत्मभाव में स्थिति- ब्राह्मी स्थिति है जिसको प्राप्त करके पुनः मोह को प्राप्त नहीं होता अर्थात अज्ञान के श्रोत संसार को प्राप्त नहीं होता । यदि अन्तकाल में भी किसी को यह आत्मभाव में स्थिति हो जाये तो वह भी ब्रह्मनिर्वाण अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ।
सारांश— सकाम कर्मी कभी सुखी नहीं हो सकता और निष्काम कर्मी कभी दुःखी नहीं हो सकता ॥७२॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे साङ्ख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः ।।२।।
हरिः ॐ तत्सत् ! हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!
श्रीकृष्णार्पमस्तु
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