गीतावलोकन अध्याय ४
ॐश्रीपरमात्मने नमः
अथ चतुर्थोऽध्यायः
श्रीभगवानुवाच
इमं विवश्वते योगं प्रोक्तवाहनमव्ययम् ।
विवश्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥४/१॥
अध्याय तीन में कहे गये कर्मयोग जिसे अध्याय दो में बुद्धियोग कहा था इसकी परंपरा और अनादित्व का वर्णन करते बताते हैं कि वैवाश्वत मन्वन्तर के प्रारंभ में यह योग सूर्य मनु के प्रति कहा था, सूर्य ने वैवश्वत मनु एवं वैवश्वत मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को कहा ॥१॥
एवं परंपरा प्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥४/२॥
इस प्रकार परंपरागत सूर्य के माध्यम से ऋषियों-मुनियों, एवं राजाओं ने इस योग को जाना । वह योग समय के प्रभाव से नष्ट हो गया ।
यहां पर परंतप उच्चारण से यह कहना चाहते हैं कि यह योग नष्ट नहीं होता होता है क्योंकि वेद नित्य मुझमें प्रतिष्ठित होने से मेरा साक्षात् अभिन्न स्वरूप हैं किन्तु अधिकारी न होने से तिरोहित अर्थात अदृश्य हो जाते हैं जो लोक दृष्टि से ‘नष्ट हुआ’ ऐसा कहा जाता है किन्तु जो उत्कृष्ट तपस्वी हैं उनको यह योग वैसे ही प्राप्त हो जाता है जैसे आज तुझे यानी अर्जुन को प्राप्त हो रहा है ॥२॥
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि में सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥४/३॥
वही सूर्य को मेरे द्वारा कहा गया पुरातन यानी सृष्टि के आदि में कहा गया उत्तम एवं रहस्यमय ज्ञान एवं कर्मयोग मेरा भक्त एवं सखा होने के कारण तुझसे कहा ॥३॥
अर्जुन उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥४/४॥
अर्जुन कहते हैं कि आप कृष्ण की उत्पत्ति अर्वाचीन अर्थात अभी की है तो सूर्य की उत्पत्ति प्राचीन यानी सृष्टि के आदि की है अतः मैं किस प्रकार इस बात को जानूं कि सृष्टि के आदि में अपने ही यह ज्ञान सूर्य को दिया था ?॥४॥
श्रीभगवानुवाचन
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥४/५॥
अर्जुन की शंका का निवारण करने के लिए भगवान अपने और अर्जुन के बहुत जन्मों के होने की बात कहते हुए कहते हैं कि मैं उन सभी जन्मों को जानता हूं किन्तु तुम नहीं जानते ॥५॥
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥४/६॥
मैं कृष्ण संपूर्ण प्राणियों का नियामक, अज एवं अविनाशी होता हुआ भी अपने से अभिन्न माया को अपने आधीन करके प्रकट होता हूं ॥६॥
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४/७॥
अपने जन्म अर्थात अवतरण का कारण बताते हुए कहते हैं जब जब धर्म क्षय को प्राप्त अर्थात समाज एक सीमा से अधिक वैदिक मर्यादा का अतिक्रमण करके अनाचार बढ़ता है, चारों ओर त्राहि-त्राहि होती है, ऐसे बढ़े हुए अधर्म समय में मैं अपना सृजन करता हूं अर्थात प्रकट होता हूं ॥७॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥४/८॥
साधुओं को पवित्र करने अर्थात उनके उद्धार के निमित्त उनको आश्वस्त करने और अध्यात्म शास्त्र का प्रतिपादन करते हुए वेदविरोधी दुष्टात्माओं का विनाश करने एवं वैदिक धर्म की भली-भांति प्रतिष्ठा के निमित्त समय समय पर अर्थात जब भी और जिस रूप में आवश्यक होता तब तब उसी रूप में प्रकट होता हूं ॥८॥
जन्मकर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥४/९॥
भगवान कहते हैं कि जो मुमुक्षु मेरे जन्म-कर्म अर्थात लीला को दिव्य अर्थात अलौकिक एवं तत्त्वतः जानता है वह शरीर त्यागकर मुझ सर्वात्मा को ही प्राप्त होता है उसका जन्म नहीं होता ॥९॥
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥४/१०॥
जिसके राग, भय, क्रोध नष्ट हो गये हैं मन मेरे तात्त्विक स्वरूप से ओत-प्रोत होकर मुझ आत्मस्वरूप की उपासना करते हैं ऐसे बहुत मुमुक्षु ज्ञानरूप तप के द्वारा पवित्र होकर मेरे स्वरूप को अर्थात अभिन्नत्व को प्राप्त हुए हैं । सामान्य शब्दों में मोक्ष को प्राप्त हुए हैं ॥१०॥
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्त्माऽनुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥४/११॥
जो जिस भाव से भगवान का भजन करता है भगवान भी उसी भाव के अनुसार वैसा ही साधन उपलब्ध करा देते हैं क्योंकि सभी मनुष्य सभी प्रकार अनुसरण तो भगवान का ही करते हैं ॥११॥
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥४/१२॥
मनुष्य लोक में यज्ञादि कर्मों से शीघ्र सिद्धि हो जाती है इसलिए फल की कामना वाले देवताओं की उपासना करते हैं ।
यहां एक बात गंभीरता से विचारणीय है भगवान कहते हैं कर्मों से सीघ्र सिद्धि मिलती है, किन्तु फलाकांक्षी शीघ्र फल की कामना से देवताओं की आराधना करते हैं । भगवान दूसरे अध्याय में सकाम कर्म की निंदा जन्म-मृत्यु का हेतु होने के कारण करते हैं और निष्काम कर्म की स्तुति करते हैं । इसी न्याय से यह यह कहना चाहते हैं कि कर्तव्य कर्मों से सिद्धि शीघ्र होती तो है लेकिन यही कर्तव्य कर्म निष्काम भाव से होने पर चित्तशुद्धि भी शीघ्रता से होगी जो मोक्ष का परम साधन है । इसी निष्काम कर्म का अध्याय अठारह में वर्णन करेंगे, जो यहां का ही शेष भाग समझना चाहिए ॥१२॥
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः ।
तस्यकर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥४/१३॥
भगवान ने चार वर्णों की सृष्टि गुण और कर्म के आधार पर की है । अविनाशी परमात्मा उन चारों वर्णों का कर्ता होकर भी अकर्ता है ऐसा समझना चाहिए ।
यह पर भी ध्यान देने योग्य यह है कि चार वर्णों की सृष्टि प्रथम भाग में गुण के आधार पर की है । गुण यानी पूर्व शरीरों में किये गये कर्मों के आधार पर जिस गुण की प्रधानता वाला जो है उस गुण की प्रधानता वाले का जन्म चार विभाग करके चार वर्ण जिसे वर्ग भी कह सकते हैं ब्राह्मणादि रूपों में जन्म से ही होते हैं । दूसरा विभाग किया कर्म के आधार पर यान जन्म अवश्य गुणों के आधार पर हुआ है किन्तु लोक में कर्म ही प्रधान है अतः ब्राह्मण आदि के कर्म का आधार भी उन गुणों में स्थित होना है जिनसे कर्मज ब्राह्मणादि इस लोक में शास्त्रों में कहा गया है जिसके लक्षण अध्याय अठारह में वर्णित हैं यदि उनमें वे लक्षण हैं तो वह जन्मज-कर्मज एवं कर्मज ब्राह्मणादि है और यदि केवल कर्मज लक्षण हैं तो वह कर्मज ब्राह्मणादि है । शास्त्रों ने कर्मज को ही विशेष महत्व दिया है, जिनमें ब्राह्मणादि के कर्म नहीं हैं उनकी शास्त्रों ने कठोर निंदा की है ॥१३॥
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥४/१४॥
भगवान कहते हैं कि मुझमें कर्मफल की चाह नहीं है इसलिए मुझमें कर्मासक्ति नहीं होती, इस प्रकार जो मुझे जानेगा अर्थात मेरे अनुसार जो भी कर्मफल की चाह नहीं रखेगा कर्म उसको भी नहीं बांधेंगे ॥१४॥
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
करु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥४/१५॥
इस प्रकार स्पृहा रहित कर्म मुमुक्षुओं ने पूर्वकाल में भी किया है अतः मोक्षार्थी को वर्तमान में भी वैसा करना ही चाहिए ॥१५॥
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥४/१६॥
स्पृहा रहित कर्म करने के लिए कर्म के स्वरूप का भी ज्ञान आवश्यक है । कर्म क्या है ? अकर्म क्या है ? इस पर बड़े-बड़े कर्ममीमांसक भ्रमित हो जाते हैं । वही कर्ममीमांसा तुमसे कहूंगा जिसे जानकर अर्थात जीवन में उतार कर जन्म-मृत्यु रूप अशुभ से मुक्त हो जायेगा ॥१६॥
कर्मणो ह्यपि बोधव्यं बोधव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोधव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥४/१७॥
शास्त्रीय कर्म भी जानना चाहिए,अशास्त्रीय कर्म भी जानना चाहिए, निष्काम कर्म भी जानना चाहिए क्योंकि कर्म की गति अर्थात कर्म का स्वरूप अत्यंत गंभीर है ॥१८॥
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥४/१८॥
स्पृहा रहित शास्त्रीय कर्म करने पर भी जो उस कर्म के अकर्मस्वरूप में स्थित है, जो कर्म न करने पर भी उसके फल में रमणीय बुद्धि से उसका चिन्तन होने से उस शरीर से न किये जाने वाले कर्म को भी मानस चिंतन के कारण कर्म ही जानता है क्योंकि पहले रमणीय बुद्धि, फिर प्राप्ति चिंतन और फिर प्राप्ति की चेष्टा और फिर स्थूल स्वरूप में परिवर्तन ।
अतः कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को जानने वाला मनुष्यों में बुद्धिमान मनुष्य है । वही आत्मा में नित्य स्थित होकर संपूर्ण कर्मों को करने वाला है ।
अध्याय दो में ‘योगस्थः कुरु कर्माणि’ २/४८ से लेकर ‘बुद्धियुक्तो…….। योगः कर्मसु कौशलम् ॥२/५०॥ तक का स्पष्टीकरण कर दिया ॥१८॥
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पविवर्जिताः ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥४/१९॥
जिसके सभी कर्मों का आरंभ कामनाओं के संकल्प से रहित होकर आत्मा-अनात्मा के विवेक रूपी ज्ञानाग्नि द्वारा सभी कर्म जल गये हैं तत्त्वदर्शी उसे ही पण्डित कहते हैं ॥१९॥
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ॥४/२०॥
अतः जो कर्मफल का त्याग करके किसी देवता, ईश्वर आदि स्व से भिन्न का आश्रय न लेकर स्वयं अपने आत्मस्वरूप में अनवरत, एकरस तृप्त रहता है वह कर्म में प्रवृत्त हुआ दिखने पर भी कुछ भी नहीं करता ॥२०॥
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥४/२१॥
किसी भी प्रकार की फलाकांक्षा न रखते हुए, चौदह इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके एकात्म भाव में स्थित हुआ संपूर्ण परिग्रह का त्याग करके मात्र शरीर संरक्षणार्थ कर्म करने से दोष नहीं होता ॥२१॥
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वान्द्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥४/२२॥
पूर्व श्लोक के उत्तरार्ध की व्याख्या करते हुए कहते शरीर निर्वाह के निमित्त वह क्या करेगा ? वह जो कुछ प्रारब्ध के अनुसार भिक्षा में अनुकूल प्रतिकूल मिल जायेगा वह चाहे किसी ने लाकर दिया हो या चलकर भिक्षा से प्राप्त हो वह उसमें संतुष्ट होगा । यह अनुकूल है या प्रतिकूल इस द्वान्द्व से परे होगा, अनुकूल वस्तु की प्राप्ति न होने पर भी डाह नहीं करेगा । वह हर परिस्थिति में में चाहे भिक्षा मिले या न मिले, चाहे आत्म स्थिति बने या न बने प्रत्येक दसा में वह समत्वभाव में स्थित रहता है जिस कारण वह कर्म कर्ता हुआ भी उसके फलस्वरूप जन्मादि बंधनों से नहीं बंधता ॥२२॥
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थित चेतसः ।
यज्ञायाऽचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥४/२३॥
जिसकी अनात्म पदार्थ की संगति नष्ट हो गई है, बुद्धि ज्ञानस्वरूप आत्मा में भली-भांति स्थित हो गई है ऐसे मुक्त पुरुष के यज्ञ अर्थात परमात्मा के निमित्त कि गये सभी कर्म भली-भांति विलीन अर्थात नष्ट हो गये हैं अर्थात वे भुने हुए बीज के समान जन्मादि फल नहीं देते ॥२३॥
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥४/२४॥
क्योंकि उसके क्रिया कर्ता और कर्म सभी कुछ ब्रह्म ही है अतः ब्रह्म ही उसकी गति होती है अर्थात जीवात्मैक्यता को प्राप्त होता है ॥२४॥
दैवमेवाऽपरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञैनोवोपजुह्वति ॥४/२५॥
कोई (साकार उपासना रूप) दैवयज्ञ करते हैं, कोई अग्नि ब्रह्म में होमात्मक ब्रह्म की, तो कोई विचार रूप अग्नि में जीव रूप समिधा का हवन करते हैं अर्थात जीवात्मैक्य का विचार करके मात्र ‘असि’ पद का अनुसंधान करते हैं ॥२५॥
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥४/२६॥
कोई तो श्रोत्रादि ज्ञानेन्द्रियो का नियमन हैं, कुछ लोग उनके शब्दादि विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नि में हवन कर देते हैं अर्थात इन्द्रियों को उनके अनुकूल आहार न देकर उन्हें नियंत्रित करते हैं ॥२६॥
सर्वाणीन्द्रिय कर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥४/२७॥
दूसरे लोग सभी इन्द्रियों एवं प्राणों के कर्मों को आत्मसंयम रूप योगाग्नि में हवन करके ज्ञान से प्रकाशित होते अर्थात ज्ञानस्वरूप आत्मा में स्थित होते हैं ।
अध्याय ५/८-९ के अनुसार समझ लेना चाहिए क्योंकि वहीं इन्द्रियों सहित प्राणों और उनके कर्मों की धारणा का वर्णन किया गया है ॥२७॥
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥४/२८॥
अन्य लोग द्रव्य यज्ञ अर्थात देश-काल, परिस्थिति के अनुसार धन, वस्तु आदि का दान रूप यज्ञ, अध्याय सत्रह में वर्णित तीनो प्रकार के तप रूप यज्ञ, अष्टांगयोग (पतंजलि के प्रारंभिक पांच और श्रवण, मनन, निदिध्यान) रूप यज्ञ, तथा वेदों के तात्पर्य को समझना रूप और प्रयत्नशील संयम का आजीवन व्रत करने वाले यतिजन ज्ञानयज्ञ अर्थात आत्मा-अनात्मा के विवेक का प्रतिपादन रूप यज्ञ करते हैं ॥२८॥
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥४/२९॥
दूसरे लोग प्राण, अपान आदि प्राणायाम के स्वरूप को जानकर प्राणायाम परायण रूप यज्ञ करते हैं ॥३०॥
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ।
सर्वेप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपित कल्मषाः ॥४/३०॥
अन्य नियमित आहार (अध्याय छः और सत्रह के अनुसार) लेकर प्राणों को प्राणों में हवन करते हैं । ये उपरोक्त जो कहे गये हैं वे सभी यज्ञ (कर्तव्य कर्म) के मर्मज्ञ यज्ञ के द्वारा निर्विकारता को प्राप्त हुए हैं ॥३०॥
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥४/३१॥
कर्तव्य का पालन करने से बचे हुए अन्न-धन का उपभोग करने वाला अमृतभोजी सनातन ब्रह्म को प्राप्त करता है अर्थात मोक्ष प्राप्त करता है । श्रेष्ठ कर्म करने वाले के लिए इस संसार यज्ञ से भिन्न और कोई कर्म है ही नहीं ॥३१॥
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥४/३२॥
इस प्रकार वेदमुख से बहुत प्रकार यज्ञों का विस्तार कहा गया है । उन सभी कर्मों को स्वरूप से जानकर तदनुसार आचरण करके जन्मादि के बीज कर्मों से मनीषी मुक्त हो जाता है ॥३२॥
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाञ्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥४/३३॥
द्वव्य यज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है, क्योंकि संपूर्ण कर्मो की परिसमाप्ति ज्ञान से ही हो जाती है ॥३३॥
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥४/३४॥
जिस ज्ञान से कर्म की परिसमाप्ति हो जाती है उसको जानने के तत्त्वज्ञ महापुरुषों के पास जाकर उनके चरणों में दंडवत लंबा गिरकर उसकी सेवा करके उन्हें संतुष्ट करके यथा समय आत्मा-अनात्मा विषयक प्रश्न करे । वे कृपालु कर्मों के रहस्य को जानने वाले तत्त्वदर्शी तुझे उपदेश कर देंगे ॥३४॥
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥४/३५॥
जिस ज्ञान अर्थात महापुरुषों के उपदिष्ट ज्ञान के द्वारा आत्मा-अनात्मा के स्वरूप को जानकर तदनुसार अनुसरण करते हुए पुनः मोह को प्राप्त नहीं होगा एवं जिस ज्ञान के द्वारा संपूर्ण प्राणियों को अपने में और अपने को मुझ सर्वात्मा में देखेगा अर्थात आत्मैक्यता को प्राप्त करेगा (उस ज्ञान का वे तुझे उपदेश करेंगे) ॥३५॥
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥४/३६॥
ज्ञान की स्तुति करते हुए कहते हैं कि यदि कहो कि संसार के सभी पाप करने वाला पापियों का सरदार हो तो भी ? इस पर कहते हां ! सभी प्रकार के पाप करने वाला भी ज्ञान रूपी नौका पर बैठकर भव सागर को भली-भांति पार कर जायेगा ॥३६॥
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥४/३७॥
जिस प्रकार प्रचंड अग्नि में छोटी-छोटी सूखी लकड़ियां छड़ भर में जलकर नष्ट हो जाती हैं वैसे ही ज्ञानाग्नि द्वारा संपूर्ण उग्र से भी उग्र एवं सौम्य सभी कर्म जलकर भस्म हो जाते हैं ।
यहां पर सभी कर्म का उपलक्षण जो अभी फल देने के लिए उद्यत नहीं हुए हैं वे सभी पुण्य और पाप समझना चाहिए । पहले ब्रह्म यज्ञ के अन्तर्गत विचार रूप अग्नि में जीव रूपी समिधा का हवन होना बताया गया है ४/२५ उसी यहां यह समझना चाहिए कि विचार रूप अग्नि में जीव-ब्रह्म नामक औपाधिक समिधा का नास होकर ‘असि’ नामक राख शेष बचती है । अर्थात जीव और ब्रह्म की संज्ञा समाप्त होकर सत्ता मात्र का बोध शेष बचता है ॥३७॥
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥४/३८॥
अतः ज्ञान के समान पवित्र करने वाला इस संसार में कुछ भी नहीं है, वह श्रवण मनन निदिध्यासन करते रहने से समयानुसार स्वयं भली-भांति सिद्धि को प्राप्त होता है ॥३८॥
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधि गच्छति ॥४/३९॥
इस ज्ञान की प्राप्ति का उपाय यह है कि विवेकशील आचार्य, एवं श्रुति, शास्त्र के वचनों में श्रद्धा होना, ज्ञान प्राप्ति के लिए व्याकुलता, इन्द्रियों को वश में रखने वाला ज्ञान को प्राप्त करके तत्क्षण परमशान्ति अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ॥३९॥
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥४/४०॥
विवेकहीन और श्रद्धा से रहित श्रुति एवं आचार्य के उपदेश में संदेह करने वाला नष्ट हो जाता है, उसे लोक, परलोक संशय-विपर्यय वाले मनुष्य को कहीं भी सुख नहीं मिलता ॥४०॥
योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥४/४१॥
योग अर्थात आत्मभाव में स्थित होकर संपूर्ण कर्मों को ज्ञान रूपी तलवार से काटकर आत्मस्थ कर्म के बंधन से नहीं बंधता । कर्म के बंधन से न बंधना अर्थात अपने मुक्त स्वभाव में स्थित रहना ही मोक्षार्थी की अपनी संपत्ति है ॥४१॥
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्वैनं संशयं योगमात्तिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥४/४२॥
इसलिए हृदय (बुद्धि) में स्थित अज्ञान से उत्पन्न संशय का ज्ञानरूपी तलवार द्वारा स्वयं ही नाश करके योग अर्थात निष्क्रिय, निर्विकार आत्मा में स्थित होकर अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए कमर कसकर तैयार हो जा अर्थात परम पुरुषार्थ पूर्वक अपने आत्मभाव को प्राप्त कर ॥४२॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यास योगो नाम चतुर्थोऽध्यायः ।
हरिः ॐतत्सत् ! हरिः ॐतत्सत् !! हरिः ॐतत्सत् !!!
श्रीकृष्णार्पणमस्तु
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