गीतावलोकन अध्याय १
निवेदन— गीता मनुष्य जीवन का उत्कर्ष है । मनुष्य मात्र के कल्याण का एकमात्र साधन है गीता । जैसे आज के मशीनरी युग में आप मशीनों (Computer) मैं दुनिया की प्रत्येक जानकारी है तथापि उसमें मस्तिष्क न होने से वह विचार नहीं कर, कोई निर्णय नहीं कर सकता है और न ही आचारण करके अपना कल्याण कर सकता है । जैसा उसमें भर दिया गया है वैसा का वैसा ही सम्मुख प्रस्तुत कर देता है । इसी प्रकार मनुष्य परंपरागत भाष्य, टीका आदि को वैसा का वैसा ही रट लेने वाला विद्वान नहीं बल्कि एक Computer (कम्प्यूटर) से अधिक कुछ नहीं हो सकता है ।
परंपरागत हमें सिद्धांत की प्राप्ति होती है, मार्गदर्शन मिलता है किन्तु चलना स्वयं ही पड़ेगा । उसके लिए अपना विवेक चाहिए । हम देख रहे हैं कि हठधर्मिता ने मानव समाज को मनुष्य से असुर बना दिया है । जिसका परिणाम आज समाज भुगत रहा है । समाज के पतन का एकमात्र कारण है धर्माचार्यों का हठपू्र्वक अपनी बात मानने को बाध्य करना । वेदों में वर्ण व्यवस्था तो मिलती है लेकिन वहां जाति और वर्ण को लेकर झगड़ा नहीं है । जैसा कि महाराज अश्वपति के पास जब ऋषिगण ज्ञान प्राप्ति के निमित्त जाते हैं तो राजा के द्वारा दिये गये अर्घ्य, पाद्य को वे स्वीकार नहीं करते हैं, इस पर राजा कहता है—
न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपो।
नानाहिताग्निर्नाविद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कुतः।।
अर्थात— न मेरे जनपद अर्थात् राज्य में कोई चोर है, न कंजूस स्वामी और वैश्य है, न कोई शराब पीने वाला है न कोई अग्निहोत्र से रहित है, न कोई अविद्वान् है। न कोई मर्यादा का उल्लंघन करके स्वेच्छाचारी है, स्वेच्छाचारिणी तो हो ही कैसे सकती है ।
विचारणीय तथ्य यह है कि क्या राजा अश्वपति के राज्य में शूद्र नहीं थे ? क्योंकि कोई भी अग्नि रहित अर्थात अग्निहोत्र से रहित न होना यह इसी बात की ओर संकेत करता है कि या उस राज्य में शूद्र थे ही नहीं,या फिर शूद्र को भी वैदिक अग्निहोत्र पर अधिकार था और वे करते थे । इसके बाद कहते हैं कि कोई अविद्वान अर्थात मूर्ख या अनपढ़ अशिक्षित नहीं है । इसका अर्थ हुआ कि वे सभी वेदाध्ययन करके वेदों के तात्पर्य को जानने वाले थे ।
इसके अतिरिक्त राज दशरथ के राज्य में प्रजा में चारों वर्णों की व्यावस्था तो मिलती है साथ ही वहां भी यह कहा गया है ऐसा कोई नहीं था जो अग्निहोत्री न हो, यह वाल्मीकीय रामायण में स्पष्ट वर्णन मिलता है । इस प्रसंग को देखने से स्पष्ट होता है कि शम्बूक नामक शूद्र की कथा में शम्बूक के तप के कारण ब्राह्मण बालक का मरना, राम जी को उकसाना और शम्बूक वध काल्पनिक है और बाद के कुछ सामाजिक आतंकियों ने उसमें प्रक्षेपण करके समाज में विद्रोह करने का कुटिल खेल खेला गया है । जिसका परिणाम आज सामने दिखाई दे रहा है ।
यद्यपि गीता से भिन्न हमारा यह लक्ष्य नहीं है कि ब्राह्मणादि पर हम आक्षेप कर रहे हैं बल्कि हम यह बताना चाहते हैं कि समाज को साजिशों से सावधान होकर अपना कर्म करना चाहिए । वेदों के अनुसार गीता में भी वर्ण व्यवस्था है, किन्तु हठधर्मी भाष्यकारों एवं टीकाकारो ने इतना जातिवाद घुसा दिया है कि गीता का मूल उद्देश्य ही जातिवाद परक बना दिया है । श्रुति विरुद्ध वैश्य को पापयोनि कहकर उनका भी वेदों से अनधिकार घोषित कर दिया गया है । तो फिर शूद्र किस खेत की मूली हैं ?
एक उदाहरण है— सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् १८/४८ अब यदि श्लोक में सहज का अर्थ संस्कार किये जाने के बाद ब्राह्मण आदि होता है, तब उसका जो सहज कर्म है वह सहज कर्म यहां कहा गया है, तो जन्म से व्याध आदि का हिंसित कर्म भी सहज नहीं है और उसका भी कोई संस्कार होता होगा जिसके बाद उसका कोई सहज कर्म होता होगा ? और यदि नहीं तो फिर सहज का अर्थ ब्राह्मण का सहज स्वाभाविक ब्राह्मणत्व कर्म और व्याध का व्याधत्व कर्म इसी प्रकार जो जिस जगह खड़ा है उसके अनुसार उसका स्वाभाविक सहज कर्म श्वास से लेकर खान-पान और कर्म तक ही होगा तभी तो गीता मनुष्य मात्र का कल्याण करने वाली होगी ? क्योंकि ठीक इससे पहले कहा है कि— स्वाभाव नियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषं १८/४७ अर्थात जो स्वभावाकि प्रकृति द्वारा निश्चित कर्म है उसको करने से पाप नहीं लगता । तभी तो सदन कसाई, धर्मव्याध, जैसे हिंसा युक्त और तुलाधार वैश्य जैसे लोभी प्रवृत्ति वाले लोक भी कल्याण को प्राप्त हुए । यही स्वाभाविक और सहज कर्मों हैं जिन्हें करने से मनुष्य आत्मसिद्धि को प्राप्त करता है— स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्विं विन्दति मानवः १८/४६ इसका कारण बताया कि आत्मसिद्धि में कारण कर्म नहीं है बल्कि—
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति ।।१८/४९
अर्थात सभी चौदह इन्द्रियों की एक इन्द्रिय हो जाने के कारण उसकी स्पहा समाज हो गई है इसलिए संपूर्ण अनात्पदार्थों से हटकर निक्रिय आत्मा में विवेक-विचार द्वारा क्रियमाण प्रकृति का त्याग करके परम अर्थात दृढ़ निश्चय को प्राप्त हो जाता है । अर्थात कर्म में कर्तापन का अहं और फल की स्पृहा जिसमें नहीं है ऐसा अपने स्थानीय हिंसित या अहिंसित कर्मों को करने वाला भी आत्मभाव को प्राप्त कर लेता है ।
इस प्रकार यह सिद्ध होता सामाजिक वैमनस्यता और हठधर्मिता टीकाओं और भाष्यों में कूट कूट कर भरी गई है जिसका विवेकपूर्वक निवारण करके अपना कल्याण मनुष्य मात्र को करना चाहिए । यही गीता का परम लक्ष्य है ।
मङ्गलाचरण
गजाननं भूतगणादि सेवितं कपित्थजम्बूफल चारुभक्षणम् ।
उमासुतं शोकविनाश कारकं नमामि विघ्नेश्वर पादपङ्कजम् ।।
मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिम् ।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् ।।
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।
गौरीशंकर वंदना करता शीश झुकाय ।
तत्त्वं का ही बोध हो काम सकल जरि जाय ।।
गीता की महिमा नहीं जानूं हे यदुराय ।
फिर भी हठ करता यही आकर देहु बताय ।।
वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्-
पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात् ।
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्-
कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने ।।
मंगलाचरण का सामान्य अर्थ होता है मंगल अर्थात कल्याणकारी आचरण । इसके लिए माता-पिता, गुरुजन एवं आराध्य की सेवा और उन्हें नमस्कार करके प्रसन्न करना होता है । ध्यान का अर्थ होता अपनी चौदहों इन्द्रियो को समेटकर एकरूप लक्ष्य में केन्द्रित होना । अतः हम सबके सुहृत सबकी आत्मा जिसे मैं नहीं जानता किन्तु जो संपूर्ण प्राणियों को बुद्धि रूप गुहा में छुपकर आत्म रूप से सबको जानता है । हम उस आत्मतत्त्व को नमस्कार हैं, वे परमेश्वर हम सबका मंगल करें ।
अङ्गन्यास
।।पाठ विधि।।
विनियोग----
ॐ अस्य श्रीमद्भगवद्गीतामालामन्त्रस्य भगवान्
वेदव्यास ऋषिः । अनुष्टुप्छन्दः । श्रीकृष्णः परमात्मा
देवता । अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे
इति बीजम् । सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज
इति शक्तिः । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा
शुचः इति कीलकं । श्रीकृष्णः प्रीत्यर्थे पाठे विनियोगः ।।
करन्यास----
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः इत्यङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
न चैनं क्लेन्त्यापो न शोषयति मारुतः इति तर्जनीभ्यां नमः ।।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च इति मध्यमाभ्यां नमः ।।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनम् इत्यनामिकाभ्यां नमः ।।
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रः इति कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च इति करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।।
एवं उक्त प्रकारेण हृदयादि न्यासः ।।
ध्यानम्—
ॐ पार्थाय प्रतिबोधितां भगवता नारायणेेन स्वयं
व्यासेन ग्रथितां पुराण मुनिना मध्येमहाभारतम्
।
अद्वैतामृतवर्षिणीं भगवतीमष्टादशध्यायिनी-
मम्ब त्वामनुसन्दधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीम् ।।१।।
नमोऽस्तुते व्यास विशालबुद्धे फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्र ।
येन त्वया भारततैलपूर्णः प्रज्वालितो ज्ञानमयः प्रदीपः ।।२।।
प्रपन्नपारिजाताय तोत्त्रवेत्रैकपाणये ।
ज्ञानमुद्राय कृष्णाय गीतामृतदुहे नमः ।।३।।
वसुदेव सुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् ।
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ।।४।।
भीष्मद्रोणतटा जयद्रथजला गान्धारनीलोत्पला
शल्यग्राहवती कृपेण वहनी कर्णेन वेलाकुला ।
अश्वत्थामविकर्णघोरमकरा दुर्योधनावर्तिनी
सोत्तीर्णा खलु पाण्डवै रणनदी कैवर्तकः केशवः ।।५।।
पाराशर्यवचःसरोजममलं गीतार्थगन्धोत्कटं-
नानाख्यानककेसरं हरिकथा सम्बोधनाबोधितम् ।
लोके सज्जनषट्पदैरहरह पेपीयमानं मुदा
भूयाद्भारतपङ्कजं कलिमल प्रध्वंसि नः श्रेयसे ।।६।।
मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिम् ।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम् ।।७।।
अर्जुन को ज्ञान देने वाले कृष्ण, जिनकी कृपा से यह ज्ञान हमारे तक पहुंचा उन वेदव्यास जी तथा महाभारत के वे सभी पात्र जिनके कारण महाभारत हुआ और यह गीता रस प्रकट हुआ उन सभी की कलिकल्ष विध्वंस कराने वाली गीता में निमित्त होने से वन्दना करते हुए जिसकी कृपा से साधक वाणी की चरम सीमा में पहुंचकर मौन हो जाते हैं और एक मात्र आत्मनिष्ठ से कल्याण को प्राप्त हो जाते हैं उन सर्वैश्वर्य संपन्न सर्वात्मा को नमस्कार करता हूं ।
गीता माहात्म्य
धरोवाच
भगवन् परमेशान भक्तिरव्यभिचारिणी ।
प्रारब्धं भुज्यमानस्य कथं भवति हे प्रभो ।।१।।
विष्णुरुवाच
प्रारब्धं भुज्यमानो हि गीताभ्यासरतः सदा ।
स मुक्तः स सुखी लोके कर्मणा नोपलिप्यते ।।२।।
महापापादिपापानि गीताध्यानं करोति चेत् ।
क्वचित् स्पर्शं न कुर्वन्ति नलिनीदलमम्बुवत् ।।३।।
गीतायाः पुस्तकं यत्र यत्र पाठः प्रवर्तते ।
तत्र सर्वाणि तीर्थानि प्रयागादीनि तत्र वै ।।४।।
सर्वे देवाश्च ऋषयो योगिनः पन्नगाश्च ये ।
गोपाला गोपिका वाऽपि नारदोद्धव पार्षदैः ।।५।।
सहायो जायते शीघ्रं यत्र गीता प्रवर्तते ।
यत्र गीता विचारश्च पठनं पाठनं श्रुतम् ।
तत्राऽहं निश्चितं पृथ्वि निवसामि सदैव हि ।।६।।
गीताश्रेयेऽहं तिष्ठामि गीता मे चोत्तमं गृहम् ।
गीताज्ञानमुपाश्रित्य त्रींल्लोकान् पालयाम्यहम् ।।७।।
गीता मे परमा विद्या ब्रह्मरूपा न संशयः ।
अर्धमात्राक्षरा नित्या स्वानिर्वाच्यपदात्मिका ।।८।।
चिदानन्देन कृष्णेन प्रोक्ता स्वमुखतोऽर्जुन ।
वेदत्रयी परानन्दा तत्त्वार्थज्ञानसंयुता ।।९।।
योऽष्टादशजपो नित्यं नरः निश्चलमानसः ।
ज्ञानसिद्धिं स लभते ततो याति परं पदम् ।।१०।।
पाठेऽसमर्थः सम्पूर्णे ततोऽर्धं पाठमाचरेत् ।
तदा गोदानं पुण्यं लभते नाऽत्र संशयः ।।११।।
त्रिभागं पठमानस्तु गङ्गा स्नान फलं लभेत् ।
षडंशं जपमानस्तु सोमयागफलं लभेत् ।।१२।।
एकाध्यायं तु यो नित्यं पठते भक्ति संयुतः ।
रुद्रलोकमवाप्नोति गणो भूत्वा वसेच्चिरम् ।।१३।।
अध्यायं श्लोकपादं वा नित्यं यः पठते नरः ।
स याति नरतां मन्वन्तरं यावद्वसुन्धरे ।।१४।।
गीतायाः श्लोकदशकं सप्त पञ्च चतुष्टयं ।
द्वौ त्रीनेकं तदर्थं वा श्लोकानां यः पठेन्नरः ।।१५।।
चन्द्रलोकमवाप्नोति वर्षाणामयुतं ध्रुवम् ।
गीतापाठसमायुक्तो मृतो मानुषतां ब्रजेत् ।।१६।।
गीताभ्यासं पुनः कृत्वा लभते मुक्तिमुत्तम् ।
गीतेत्युच्चारसंयुक्तो म्रियमणो गतिं लभेत् ।।१७।।
गीतार्थश्रवणासक्तो महापापयुतोऽपि वा ।
वैकुण्ठं समवाप्नोति विष्णुना सह मोदते ।।१८।।
गीतार्थं ध्यायते नित्यं कृत्वा कर्माणि भूरिशः ।
जीवन्मुक्तः स विज्ञेयो देहान्ते परमं पदम् ।।१९।।
गीतामाश्रित्य बहवो भूभुजो जनकादयः ।
निर्धूतकल्मषा लोके गीता याता परं पदम् ।।२०।।
गीतायाः पठनं कृत्वा माहात्म्यं नैव यः पठेत ।
वृथा पाठो भवेत्तस्य श्रम एव ह्युदाहृत्यः ।।२१।।
एतन्माहात्म्यसंयुक्तं गीताभ्यासं करोति यः ।
स तत्फलमवाप्नोति दुर्लभां गतिमाप्नुयात् ।।२२।।
सूत उवाच
माहाम्यमेतद्गीताया मया प्रोक्तं सनातनम् ।
गीतान्ते च पठेद्यस्तु तदुक्तं तत्फलं लभेत् ।।२३।।
गीता माहात्म्य तो कहना कठिन है, सारांश इतना है कि गीता के अभ्यासी का त्रिकाल में भी पतन नहीं होता है ।
इति श्रीवाराहपुराणे धराप्रोक्तं श्रीगीतामाहात्यं सम्पूर्णं ।। ओ३म् !
ध्यानम्
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् ।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ।।१।।
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै-
र्वेदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः ।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं
योगिनो-यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ।।२।
वंशीविभूशितकरान्नवनीरदाभा-
त्पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोठात् ।
पूर्णेन्दु सुन्दरमुखादरविन्दनेत्रा-
त्कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने ।।३।।
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।।
शङ्करं शंकराचार्यं केशवं बादरायणं ।
सूत्रभाष्य कृतौ वन्दे भगवन्तौ पुनः पुनः ।।
ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेद विभागाने ।
व्योमवद्व्याप्यदेहाय दक्षिणामूर्तये नमः ।।
पुनः आचार्य परंपरा सहित परमेश्वर तत्त्व को नमस्कार करता हूं । वे क्या हैं ? कैसे हैं ? कितने हैं ? यह वही जानें किन्तु आप कैसे प्राप्त होते हैं वे साधन मुझे प्राप्त कराकर अपने सौहार्द का परिचय दें ।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता॥
॥ॐश्रीपरमात्मने नमः॥
अथ प्रथमोऽध्यायः
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्वाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥१/१॥
सञ्जय उवाच
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥१/२॥
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥१/३॥
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥१/४॥
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः ॥१/५॥
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥१/६॥
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥ १/७॥
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥ १/८॥
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥ १/९॥
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥१/१०॥
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥१/११॥
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् ॥१/१२॥
ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥१/१३॥
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ॥१/१४॥
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः ॥१/१५॥
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥१/१६॥
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथाः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥१/१७॥
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥१/१८॥
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥१/१९॥
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥१/२०॥
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।।
अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥१/२१॥
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ।।१/२२॥
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ।।१/२३।।
सञ्जय उवाच----
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥१/२४॥
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ॥१/२५॥
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान् ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥१/२६॥
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ॥१/२७॥
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत ।
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥१/२८॥
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ॥१/२९॥
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥१/३०॥
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥१/३१॥
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ॥१/३२॥
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥१/३३॥
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ॥१/३४॥
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥१/३५॥
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ॥१/३६॥
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥१/३७॥
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥१/३८॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥१/३९॥
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥/१/४०॥
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः ॥१/४१॥
सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥१/४२॥
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥१/४३॥
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥१/४४॥
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥१/४५॥
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ।।१/४६॥
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥१/४७॥
मैं अर्थ न करके सार भाव में ही लेखन करूंगा । यहां धृतराष्ट्र से हमारी मोह से पतित बुद्धि और संजय से विवेक समझना चाहिए जो सदैव मार्ग दर्शन देती रहती है । दुर्योधन से दुराग्रह और द्रोण, आदि सब के सब न चाहकर विषयों के बंदी समझना चाहिए । अर्जुन साधक है । जिसमें युधिष्ठिर धर्म यानी कर्तव्य निष्ठा है, भीम कर्तव्य के प्रति आत्मबल है । नकुल और सहदेव देशकाल का निर्णय करने वाले तथा उसके अनुसार रक्षा करने वाले हैं । कृष्ण ही पथप्रदर्शक गुरु हैं ।
अर्जुन के द्वारा दिये गये पूर्वपक्ष के तर्क यानी पूर्वमीमांसा से संबंधित कर्मों और उनसे पतन की व्याख्या एवं आशंका ही इस बात को सिद्ध करती है कि अर्जुन ने पूर्वमीमांसा में कथित अग्निहोत्र आदि सभी कार्मोंं की भली-भांति जानता और कर चुका है । जब तक उन कर्मों को नहीं किया जाता है तब तक संसार की वास्तविकता सामने नहीं आती है । तब तक तितिक्षा अर्थात मोक्ष की इच्छा जाग्रत नहीं होती है, सहन शक्ति तो हो ही नहीं सकती है अतः वह दुराचारिणी स्त्री की भांति-भांति पतित हो जाता है । जब कुरुक्षेत्र अर्थात कर्तव्य पालन के लिए उद्यत होता है तभी “हमारा संसार में वास्तव में क्या है” का बोध हो जाता है और वह किंकर्तव्यविमूढ़ होकर शिथिल होकर बैठ जाता है या गुरु की शरण में चला जाता है और संसार के प्रति अपनी मनःस्थिति को स्पष्ट कर देता है । यही प्रथम अध्याय का भाव समझना चाहिए ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
हरिः ॐ तत्सत् ! हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!
श्रीकृष्णार्पणमस्तु
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